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बाण भट्ट की आत्म-कथा

अद्भुत विधान है। आर्य-पुराण-ग्रन्थों से इस मैत्री बन्ध का कोई समर्थन नहीं होता। इस विद्या ने देश के अशिक्षित जन-समूह को खूब प्रभावित किया है, और धीरे-धीरे यह विद्या कुसंस्कार के रूप में राजा और पंडितों में फैलती जाती है । सब से आश्चर्य तो यह है। कि भगवान बुद्ध के प्रवर्तित सौगत-मार्ग में भी इसका प्राधान्य स्थापित हो गया है ! मैं इसका रहस्य जानता हूँ; परन्तु निउनिया नहीं जानती। तो भी उसको आश्वस्त करने के लिए मैंने प्रतिज्ञा की कि किसी जीवित व्यक्ति के विषय में कविता लिखने में संकोच करूगा । अन्त तक मेरी प्रतिज्ञा निभ नहीं सकी; पर जिस दिन वह टूटी, उस दिन निपुणिका हमें छोड़ कर लोकान्तर को प्रस्थान कर चुकी थी। हम दोनों थोड़ी देर तक चुप बैठे रहे। नौका के नीचे से अानन्द-गद्गद स्वर में सुनाई दिया :-- अलौघममा सचराचरी धरा विषाण कोट्यासिवमूर्तिधारिणी समुद्धता येन वराहरूपिणा से में स्वयंभूर्भगवान् प्रसीदतु ॥ कंठ भट्टिनी का था । निपुणिका धड़फड़ाकर उठ पड़ी । बोली- भट्टिनी की पूजा समाप्त हो गई । चलो, प्रसाद लें ।