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बाण भट्ट की आत्म-कथा

१८६. बाण भट्ट की आत्मकथा सामने भट्टिनी बैठी थीं। उनकी बड़ी-बड़ी अखें पैंस गई थीं, मुख- मण्डल पाए इर हो गया था और कपोल-तल फीके पड़ गए थे। निश्चय ही कई दिनों में उन्हें नींद नहीं आई थी। उनकी जागर खिन्न लाल आँखें धूलि-लु ठित पलाश-पुष्प के सम्मान, अतिप-ग्लाने बन्धुजीवन-कुसुम के समान और पंजरबद्ध खंजन-शावक की भाँति दर्शक को व्यथित, खिन्न और उत्सुक बना देती थीं। उनके चिकुर-जाले अस्त-व्यस्त हो रहे थे, मानो संकीर्ण तरुषएड से कष्टपूर्वक निकले हुए मयूर के विक्षुब्ध वईभार हों, पुष्करिणी के आलोड़ित शैवाल-जाले हों या उद्वेजित मालती-लता की विक्षुब्ध भ्रमर-पंक्ति हों ! गंगा की धारा के समान पवित्र और कैलास के नील वनराजिगामी मार्ग के समान मनोहर उनकी सीमान्त-रेखा बिखरी अलक-राशि से आच्छन्न हो गई थी । सदैव अवगुण्ठन के आश्रित केश आज उसके अभाव में सशंक-से जान पड़ते थे । भहिनी मेरे पैरों की ओर बैठी हुई निर्निमेष भाव से मेरी ही ओर देख रही थीं। उस दृष्टि में कारुण्य-धारा उमड़ रही थी। मैंने स्पष्ट ही लक्ष्य किया कि मेरी आँखों के खुलते ही भट्टिमी का रोम-रोम उल्लसित हो गया, जैसे शोभा के समुद्र में अचानक ज्वर आ गया हो। परन्तु भट्टिनी इसके लिए तैयार नहीं थीं। उन्हें शीघ्र ही मेरी संशा के लौट आने की शायद अशा नहीं थी । वे कुछ झेप-सी गईं। उनके पारिजात-पल्लवों के समान सुकुमार-मनोहर हाथ तेजी से उत्तरीय की खोज में दौड़ पड़े। एक निमेष बीतते-न-बीतते भट्टिनी का कपोत-कुबु र अंशुकान्त (अचल) सीमन्त-रेखा पर आ गया, मानी विद्य ल्लता ने चन्द्रमा पर नील मेघ-पटल का आवर डाल दिया हो, मानो मृणाल-नाल ने कमल-पुष्प को पत्तों से हैं के दिया हो, मानो विद्र म-लता ने तरंगों से जल-देवता को छिपा लिया हो । भट्टिनी को उस प्रकार बैठी देखकर मेरा चित्त उत्क्रान्त होने लगा,