पृष्ठ:बाणभट्ट की आत्मकथा.pdf/२०८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
१९६
बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की आत्मकथा रस से पिंजर हो गया। क्रमशः पश्चिम दिग्वधू के कानों को सुशो- भित करने वाले रक्तोत्पल के समान सूर्य-मण्डल अस्त हो गया, श्रीकाश- रूप सरोवर में संध्यारूपी पद्मिनी प्रकाशित हो उठी, कृष्णागुरु के पंक से निर्मित पत्रलेखा की भाँति तिमिरलेखा दिभुत्रों में परिव्याप्त हो उठी और उससे संध्या की लालिमा इस प्रकार आच्छादित हो गई, मानो भ्रमर-भूषित नीलात्पलों ने रक्तपद्म के सरोवर को अच्छिन्न कर लिया हो । धीरे-धीरे निशाविलासिनी क अवतर पल्लव की भाँति शोभमान संध्याराग विलुप्त हो गया। पारावतग भवन-चलयियों में लौटने लगे, मानो अट्टालिकास्थित भवन-लक्ष्मी ने नैशविहार के लिए कानों में नील कमल धारण कर लिया हो । जलहारी रमणियों का संचरण बन्द हुआ और नूपुरों की रुनझुन के साथ ही भवन-दीर्घिका के सारसों का क्रेकार भो शान्त हो गया । हाथियों को नींद आने लगी, इसीलिए उनके गण्डस्थल से धाराजल का चूना शान्त हो जाने से वायु-मण्डल कुछ हल्का जान पड़ने लगा, और दिन-भर की तप- क्लान्त वनचारी वायु धीरे-धीरे बह कर श्रान्ति दूर करने लगी। मैं उठ कर चलने की सोच ही रहा था कि एक अभीर सैनिक ने अभिवादन किया । मैंने आशीर्वाद देकर पूछा-'कुछ कहना चाहते हो, भद्र !! सैनिक ने अत्यन्त कातर क्षमा-याचना के साथ कहा--'अपराध मार्जित ही आर्य, ब्राह्मणीक शपथ हैं, इसीलिए आपको कष्ट दे रहा हूँ। यह कद्द कर सैनिक ने एक पत्र दिया और प्रणाम कर के चलता बना। उस समय चारों ओर अन्धकार धना हो आया था, पत्र पढ़ सकना सम्भव नहीं था; परन्तु सैनिक ने जिस ढंग से पत्र दिया, उससे कुतूहल बढ़ गया । तुरत पत्र पढ़ने की व्याकुलता से मैं चंचल हो उठा। अपने आवास पर लौटा, तो देखा कि भट्टिनी उत्सुकता के साथ मेरी प्रतीक्षा कर रही हैं । आते ही उन्होंने मृदु तिरस्कार के साथ कहा-'इतनी देर करना ठीक नहीं है। उनकी श्रीखें नीचे झुकी