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बाण भट्ट की आत्म-कथा

२०६ बाण भट्ट की आत्म-कथा नहीं भूल सका हूँ। गंगा की मनोहर धारा पर अपने अपहरण का वृत्तान्त कहती हुई निराश सिंहनी के समान उनकी स्फुल्लिग-वर्षी अाँखें मेरे मानस-पटल पर बिद्ध हो गई हैं और अन्तिम बार गंगा की धारा से शिथिल श्रान्त--विनिर्गता उनकी वह मनोहर शोभा मेरे मानस पटल-पर अंकित हो गई है, जो वराह के दन्त पर समासीन श्रान्त धरित्री का धैर्य और गाम्भीर्य में पराभूत कर रही थी । परन्तु आज मैं भट्टिनी को जिस रूप में देख चुका हूँ, वह रूप उन सब से भिन्न है। मैं इन सब रूपों में कोई एक सूत्र खोजना चाहता हूँ; पर पा नहीं रहा हूँ । कुछ दिनों से मुझे ऐसा लग रहा है कि मेरी बुद्धि लुप्त हो गई है, क्रियाशक्ति शिथिल हो गई है, वाग्धारा सूख गई है। मैं संसार की विषमताअों को देख चुका हूँ, इस दुनिया का अबोध ब्राह्मण-बटु नहीं हूँ । यद्यपि मेरे कर्तव्य-अकर्तव्य की कसौटी वही नहीं है, जो सारी दुनिया को मान्य है; पर मैं लोक-मर्यादा से अनभिज्ञ नहीं हैं। फिर भी इधर मेरा चित्त जड़ होता जा रहा है, बुद्धि मुग्ध होती जा रही है। और मस्तिष्क भोथा हो रहा है। आख़िर वह कौन-सा अन्तविकार है, जो मेरे चित्त को जड़ बना रहा है और मेरी बुद्धि को मोहग्रस्त बना रहा है । मेर लिए इसका उत्तर पाना कठिन हो रहा है । आज मैं स्वयं अपनी समस्या हो रहा हूँ ।। एक बात स्पष्ट है। भट्टिनी और निपुणिका के साथ रहने से मेरे अन्दर परिवर्तन आया है। मैं कहने को तो उनकी रक्षा के लिए साथ हूँ। पर हो गया हूँ परम आश्रित । इस अवस्था से मुक्ति मिलनी चाहिए । आज से अधिक पराधीन मैं कभी नहीं था । परन्तु भट्टिनी को अकेली छोड़कर मैं जा भी कैसे सकता हूँ । विषम समस्या है। मेरा रोम-रोम कदम्ब-केसर की भाँति उद्विग्न होकर इस परवशता का स्वागत करता जान पड़ता है, मेरा सारा हृदय द्रवित नवनीत के समान इसके सामने ढरक पड़ने को आतुर हो रहा है और भीतर से