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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की अस्मि-कथा २०७ एक तीव्र अभिलाषा उद्बुद्ध कोकनद के समान अपना अविर तोड़कर फूट पड़ना चाहती है ! मुझे क्या हो गया है ? और यह भी आश्चर्य की बात है कि मेरे चित्त में वह द्वन्द्व उस समय उठा है, जब उसे उठना है। नहीं चाहिए। मैंने श्राज भट्टिनी का स्मयमान मुख देखा है : अधरों पर लीला तरंगित हो रही थी, कपोल-पालि विभ्रम-वीचियों से मुल हो उठी थी, श्वेत पुण्डरीक के समान विशाल नयनों में लालिमा खेल रही थी, कान्ति की लहरों से सारी अनयष्टि आच्छादित थी, मानो मुक्ता-छटा की स्रोतस्विनी हो लहरा रही हो ! यह तो मेरे लिए कृतकृत्य होने का असर है। अाज तो मेरा सारा जीवन ही सार्थक जान पड़ना चाहिए था ; परन्तु मैं श्रीन ही इतना हतबुद्धि क्यों हो गया हूँ १ सचमुच मुझे हो क्या गया ! । मुझे एक-एक करके सारी बातें याद आने लगीं। आज भट्टिनी ने जो-कुछ कहा है, उसका क्या अर्थ है ? वे हज़ार-हज़ार बालिकाओं की भाँति एक बालिका हैं, तो इससे क्या हुआ ? वे हाड़-मांस की नारी हैं-न होतीं, तो बाण भई आज इस पवित्र देव-प्रतिमा के सामने अपने-आपको निःशेष भाव से उँडेल देने में अपनी सार्थकता क्यों मानत! १ हाय, संसार ने इस हाड़-मांस के देव-मन्दिर की पूजा नहीं की ! वह वैराग्य और शक्ति-मद की बालू की दीवार खड़ी करता रहा ! उसे अपने परम आराध्य का पता नहीं लगा ! लेकिन इन सब बातों में क्या रखा है ? मैं बहुत देख चुका हूँ । शोभा और कान्ति को विभ्रम और विच्छिति पर बिकते देखकर मैं जिस दिन प्रथम बार विचलित हुआ था, उस दिन की बात याद आती है, तो मेरी सम्पूर्ण सत्ता विद्रोह कर उठती है। माधुर्य और लावण्य की अपेक्षा हेला और विवोक का सम्मान दैनन्दिन घटना है, मैं यह सब जानता हूँ । परन्तु मैं यह भी जानता हूँ कि इन सारे आपाततः परस्पर-विरोधी दिखने वाले आचरणों में एक सामरस्य है- निरन्तर परिवर्त्तमान बाह्य