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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की अात्म-कथा २१६ मुक्त है । ऐसी अवस्था में भी उनकी पूजा निष्फल होगी श्रीर बन्ध्य सिद्ध होगी, क्योंकि परिनिर्वाण-प्राप्त व्यक्ति कुछ ग्रहण नहीं कर सकता और ऐसे व्यक्ति के उद्देश्य से निवेदन की हुई पूजा बन्ध्य है, निष्फल है। हे अाचार्यश्रेष्ठ, आप ही इस प्रश्न का समाधान कर सकते हैं, आप ही इसके यथार्थ तत्व का निर्णय कर सकते हैं । प्राचार्य के मुख-मण्डले पर फिर स्निग्ध-मन्द हास्य खेल गया । वे फिर उत्साहित होकर बोले-‘साधु महाजन ! तुमने प्रश्न को द्विधा- हीन भाषा में उपस्थित किया है। मैं यथामति इस प्रश्न का समाधान करूगा । परन्तु मैं तुम से एक प्रश्न करना चाहता हूँ। बिना संकोच के अपना उत्तर दो ।' ‘पूछिए । ‘अच्छा महाराज, अति महान् कोई अग्नि-राशि जब प्रज्वलित होकर निर्वाण प्राप्त होती है-बुझ जाती है- तो तृणु-काष्ठ आदि इन्धन-समूह को ग्रहण करती है १ । ‘ना भदन्त !

  • महाराज, वह अग्नि जब उपरत-उपशान्त हो जाती है, तो क्या

संसार में से अग्नि का होना एकदम उठ जाता है ? | ‘न भदन्त, इन्धन-रूप काष्ठ अग्नि का आश्रय-स्थान है, अतएव अग्नि की कामना करने वाले मनुष्य अपने-अपने उद्यम से अग्नि उत्पन्न कर लेते हैं । वे काष्ठ का मंथन करके या अन्य स्थान से अग्नि संग्रह करके फिर से महान् अग्नि-राशि उत्पन्न कर लेते हैं और अपना काम चलाते हैं ।। | ‘इसी प्रकार भगवान् की बात समझो । महाराज, जिस प्रकार महान् अमि-राशि प्रज्वलित हुई थी, भगवान भी उसी प्रकार दस सहस्त्र संसार के ऊपर बुद्ध-लक्ष्मी द्वारा प्रज्वलित हुए थे। जिस प्रकार वह महान् अग्नि-राशि प्रज्वलित होकर निर्वाण-प्राप्त हुई थी, उसी प्रकार