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बाण भट्ट की आत्म-कथा

त्रयोदश उच्छवास महाराजाधिराज ने मेरे साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया । राज- सभा से निकलने पर मेरा वित्त क्षोभ और ग्लानि से भर गया था । सूर्यास्त तक मैं व्यर्थ ही पौर-वीथियों का चक्कर काटता रहा । असल में उस समय अभिभूत था । राजसभा में प्रवेश करके मैंने देखा कि महाराजाधिराज चन्द्रकान्त भणियों से बने हुए एक सुन्दर पर्येक पर बैठे हुए इस पकार सुशोभित हो रहे थे, जैसे वज़ के डर से पुजित कुल पर्वतों के बीच में सुमेरु आसीन हो । नाना भाँति के रत्नमय अाभरणों की किरणों से उनका शरीर इस प्रकार अनुरंजित हो रहा था, मानो सहस्व-सहस इन्द्रधनुषों से आच्छादित व्योम-मण्डल में सरस जलधर सुशोभित हो रहा हो । उनके आसन-पर्यंक के ऊपर एक पट्ट- वस्त्र का श्वेत चन्द्रातप तना हुआ था, जिसमें बड़े-बड़े मुक्ताओं की झालरे लटक रही थीं । चारों कोनों में चार मणिमय दण्डों में सोने की शृखला (जंजीरों) से यह चन्द्रातप बाँध दिया गया था। सुवर्ण- दण्ड में बँधे हुए चार-कलाप झले जा रहे थे । एक स्फटिक मणि के गोल पादपीठ पर महाराज वाम चरण रखे हुए थे। नील मणि से बने हुए कुट्टिम से नीली ज्योति-रेखा निकल कर सभामंडप को ईषत् नील वर्ण से सँग-सी रही थी। महाराज अमृत फेन के समान शुभ्रवर्ण के दो दुकूल धारण किए हुए थे; जिनके आँचलों में गोरोचना से हंस के जोड़े अकि दिए गए थे । अति सुगन्धित धवल चन्दन से उपलिप्त होने के कारण उनका विशाल वक्षःस्थल श्वेत दिखाई दे रहा था । उस चन्दन के उपलेप के ऊपर कमल के आकार का कुकुम उपलिप्त था, जिसे देख कर नवोदित सूर्य-किरणों के अन्तरालवत्त कैलास