बाण भट्ट की आत्म-कथा २४६ तक खिल-खिला कर हँसते रहे। सभासदों में जिन्होंने कुछ भी नहीं समझा था, वे भी महाराज का हँसना देख लोट-लाटकर हँसने लगे। मैं कुछ झेपकर लौट आया। इस बार महाराजाधिराज ने बड़े प्रेम- पूर्वक मेरी अोर देखकर कहा–'तुम अच्छे कवि जान पड़ते हो ।' मैंने सिर झुकाकर प्रसाद स्वीकार किया। कुछ देर तक विटों और विदूषको की भोंद रसिकता का मनहूस प्रदर्शन चलता रहा । मे दम घुटने लगा । | इसी समय सभा-भंग का शंख बज़ा । महाराजाधिराज उठे और कंकणों, वलयों, नूपुरों, केयूरों और अंगदों के कलस्वन के साथ वन्दियों का जय-निनाद फिर से मुखरित हो उठा। क्रमशः त्रिल- सिनियों के कु कुम-गौर वदनों की कृत्रिम स्मित-रेखा विलुप्त हो गई, सभासदों के चाटूक्ति-विलसित हास्य शान्त हो गए, सभासदों के केतक-धूपित उत्तरीय सिमटने लगे और विदूषकों की छिछली रसिकता क्लान्ति की गम्भीरता में डूब गई। मैं जैसे रुद्धद्वार गृहगर्भ से बाहर आया । राजसभा की एकघृष्ट हवा में मैं घुट गया था। तेज़ी से मैं बाहर आ रहा था कि एक व्यक्ति ने पीछे से पुकारा--‘सुनो अार्य ! पीछे मुड़कर मैंने उसकी प्रसन्न मुखश्री को देखा । वह धावक था । उसने राजसभा में बहुत ही सुन्दर कविता सुनाई थी। उसके पाठ करने की भंगी अपनी ही थी । महाराज का वह प्रीतिपत्र जान पड़ता था। मैंने उसे देखकर प्रसन्नता प्रकट की । धावक ने हँसकर कहा- जब राजसभा में आ ही गए, तो हम लोगों को अनुश्य मानने से कैसे काम चलेगा । मैंने विनीत भाव से कहा---‘अर्य, मुझे अकारण लजा दे रहे हैं । परन्तु धावक मस्त अादमी था। उसने थोड़ी देर में ही जम के दोस्ती कर ली। देर तक वह इधर-उधर की बातें करता रहा । विदा होते समय वह कह गया—'तुम महाराज की अन्तरंग सभा के उपयुक्त पात्र हो, तुम्हें निमंत्रण ज़रूर मिलेगा ।' मैंने मतलब