पृष्ठ:बाणभट्ट की आत्मकथा.pdf/२६५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
२५३
बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की आत्मकथा २५३ का प्रतीकार कराने का प्रयत्न करे । सभा का विश्वास है कि महाराजा धिराज हमारी प्रार्थना पर अवश्य ध्यान देगे । आर्य सभासदो, किसी प्रकार की उत्तेजना इस समय विनाश का कारण सिद्ध होगी। मैं इस निर्णय पर अापकी अनुमति चाहता हूँ। अयं सभासद का मौन ही सम्मति-लक्षण मान लिया जायगा ।' सभापति चुप हुए। थोड़ी देर तक सन्नाटा रहा । ऐसा जान पड़ा, सभा ने निर्णय को चुपचाप स्वी- कार कर लिया । अचानक सभा के एक कोने में एक पिंगल प्रकाश का अविर्भाव हुआ, जैसे शरत्कालीन शुभ्र मेघों के भीतर में अचानक सौदामिनी चमक गई हो। यह महामाया भैरवी थी । आपाद धूसर गैरिक वस्त्र के भीतर उनका क्रोधताम्र मुख-मएइल सान्ध्य मेघों के बीच से उदय होते हुए चन्द्र-मण्डल की दीप्ति का प्रतिद्वन्द्वी जान पड़ता था । उनका सिन्दूर-विलिप्त त्रिशूल इस प्रकार भयंकर और मनोहर था, मानो गैरिक अधित्यका में गड़ा हुआ क्रुद्ध धूर्जटिका त्रिशन हो । महामाया ने कठोर स्वर में चिल्ला कर कहा--'आर्य सभापति, में सभा को सम्बो- धन कर के दो-चार वाक्य बोलना चाहती हूँ। मैं अवधूत अधोर भैरव की शिष्या महामाया भैरवी हूँ। मुझे अनुमति मिले । सभापति इत- स्ततः कर रहे थे कि अघोर भैरव के तुमुल जय-निनाद के साथ सभा ने भैरवी के प्रस्ताव का अनुमोदन किया। रुख देखकर सभापति ने अनु- देते हुए कहा--'भवति, दुर्घट काल उपस्थित है, सभी कालोचित सुनने को उत्सुके है ।' महामाया ने तीव्र स्वर में कहा–'आर्य सभा- सदो, मैं अवधूत अघोर भैरव की शिष्या महामाया हूँ। आप यह न समझे कि मेरे गुरु का अपमान किया गया है, इसलिए मैं क्षुब्ध हैं। अवधूतपाद भान और अपमान से परे हैं। मान उस व्यक्ति का होगा, जो उनका मान करेगा; अपमान भी उस व्यक्ति का होगा, जो उनका अपमान करेगा। इसलिए ये सभासदो, महामाया जो-कुछ कहने