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बाण भट्ट की आत्म-कथा

२६० बाणु भट्ट की आत्मकथा नहीं जानता। वह बोलता ही गया-सच्ची बात बताऊँ, अयं ! मैं जब प्राची में उदयगिरि-तटान रित निशानाथ ( चन्द्रमा ) को देखता हूँ, तो बरबस किसी ऐसी उदास प्रिया की स्मृति जाग उठती है, जिस का प्रिय उसके हृदय के अन्तराल में बैठा होता है और वियोग व्यथा से उसका मुख पाएर हो गया होता है । तुम्हें कैसा लगता है ? मैंने रस लेते हुए कहा-'अनुभव की बात कह रहे हो या कल्पना की सखे !' धावक ने मस्ती व संथि जवाब दिया-*अनुभव तुम्हारा, कल्पना हमारी । क्यों सखे, इतना भाग तो मुझे मिलना ही चाहिए सुना, मैं तुम्हें वह बात भी सिखा दूंगा, जो तुम भेंट होने पर अपनी उस उदास प्रिया से कहोगे । मैंने बड़ों-बड़ों को सिखाया हैं, गुरु ! महाराजाधिराज तक इस विषय में मेरे चेले हैं !! मैंने रस लेते हुए कहा--सिखा दो, सूखे ! धावक बोला---'तो उतावले क्यों होते हो कल सीख लेना ! अभी मैं कुमार कृष्ण का सन्देश लेकर तुम्हें खोजने आया हूँ। तुम्हें जितने लोग इस नगर में पहचानते हैं, सब दौड़ए गए हैं। सुचरिता ने अपने बयान में कहा है कि तुम उसे पहचानते हो और उसकी तुम्हारे ऊपर अगाध श्रद्धा हैं । कुमार का आदेश है। कि तुम शीघ्र राजकीय वन्दीशाला में जाकर उसे राज्य के अनुकूल बनाश्रो । तुम वहाँ निबंध पहुँच सको, इसकी व्यवस्था की जा चुकी है । शीघ्रता करो, नहीं तो अनर्थ हो जायगा । | धावक ने मुझे सोचने का अवसर ही नहीं दिया । दूर से दुन्दुभि की आवाज़ सुनाई दी । उसका मतलब समझाते हुए उसने कहा-

  • कुमार कृष्णवर्धन शान्ति की घोषणा कर रहे हैं । अवधूत अधर भैरव

---.--

."

'तुलनीय (रत्नावली, १-२५)- उदयगिरितटान्तरितमिर्थ प्राची सूचयति दिङ् निशानाथम् । परिपाण्डुना मुखेन प्रियमिव हृद्यस्थितं रमणी ।।।