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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाणु भट्ट की आत्मकथा २६१ और आर्य वेंकटेशपाद लौटा लाए गए हैं । अाज इसी विकट व्यवहार विषय में महाराजधिराज, कुमार कृष्ण और प्रधाने अधिकरणिक में दीर्घ काल तक फिसिर-फिसिर चलती रही । मैंने पूछा-क्या व्यवहार है, सखे १ धावक ने मुह बना कर कहा--व्यवहार क्या है, बुद्धि को दिवालियापन है । यह जो विरतिवज्र है, वह किसी समय बौद्ध भिक्षु था । अब भले आदमी को न जाने क्या सूझी है कि अधोरभैरव और वेक- टेश भट्ट के चंगुल में आ फँसा है। वेंकटेश भट्ट कुछ अजब लफंग लगता है-या क्या जाने भाई, मैं तो धर्म साधना का नाम-न्ध भी नहीं जानता। सो इस भलेमान ने विरतिवज्र को और सुचरिता को एक साथ नवीन साधन-मार्ग में दीक्षित किया है। अब इस व्यापार से यहाँ का ढोंगी बौद्ध पंडित वसुभूति ( जिसे महाराजाधिराज ने व्यर्थ ही सिर चढ़ा रखा है ) इतना चिढ़ा है कि अपने चेले धनदत्त श्रेष्ठ को उकसाकर एक जाल तैयार किया है । धनदत्त कहता है कि विरति- वज्र का पिता उसके एक सहसे दीनार ऋण लेकर मर गया था। जब तक वि रतिवज्र सन्यासी था तब तक वह इस ऋण से मुक्त था; परन्तु अब चूकि वह सुचरिता के साथ गृहस्थी के बन्धन में बंध गया है, इसलिए उसे कुसीदक ( सूद ) समेत ऋण चुकाना चाहिए। संक्षेप में यही व्यवहार है । इसमें तुम्हें क्या करना है सो तुम जानो। मैं तो तुम्हें वन्दीशाला तक पहुँचा कर किसी और दिशा को चल देंगा ।' मैं कुछ कुछ समझ रहा था ; परन्तु और जानने की इच्छा से धावक से पूछा---'यह महामाया भैरवी ने आज क्या अनर्थ किया । सखे ! धावक हंसा, बोला---'राजधानी हैं, मित्र ! बहुत-कुछ देखोगे । महा- माया को यहां बहुत कम लोग जानते हैं। मैं थोड़ा-थोड़ा जानता हूँ। वह महाराज्ञी राज्य श्री की सौत हैं !! मैं जैसे सोते में जमा, चौंक कर पूछा-'सौत १: धावक ने डाँटा–‘चिल्लाते क्यों हो, इस नगर में रानियों की सौतों का विशाल जंगल है-जंगल ! मैंने फिसफिसा कर