पृष्ठ:बाणभट्ट की आत्मकथा.pdf/२७६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
२६४
बाण भट्ट की आत्म-कथा

२६४ बाण भट्ट की आत्म-कथा बुला लाया । उसने उसका सीमन्त ढंक दिया । सुचरिता ने बड़े प्रयास के साथ हँसकर कहा-'अस्थान में आर्य को प्रणाम करने में भी लजा अनुभव कर रही हैं । श्रविनय क्षमा हो, नारायण का दिया हुआ यह भी प्रसाद हैं !! सिर्फ एक क्षण के लिए उसका मुख वियर्ण हो गया ; परन्तु तुरत सँभलकर बोली-‘जिससे उसको आनन्द मिले, वही कर्तव्य है। फिर क्षणभर तक अभिभूत की अवस्था में वह निस्तब्ध हो रही, केवल अधरोष्ठ रह-रहकर स्फुरित होते रहे, मानो किसी अदृश्य व्यक्ति से अज्ञात भाषा में कुछ बोल रही हो । मेरा हृदय सह-सस धाराओं में बह जाने को आतुर हो उठा। कैसे कहूं कि देवि, बाण भट्ट तुम्हारे समूचे कष्टों को अपने ऊपर लेने की तैयार है ! हाय, यह भी क्या सम्भव है ? किस कूटनीति ने इस पद्म- पुष्प को लोहे के शृखलों में बाँधा है, किस पाप-बुद्धि ने इस नवनीत- पिण्ड को मुज-तन्तुथों से जकड़ा है, किस कलुई जीव ने इस मालती माला को तप्त अंगार पर पटक दिया है १ कैसे कहूँ कि देवी, तुम्हारे इस कष्ट और वेदना को सम्पूर्ण रूप से अपने ऊपर लिए बिना इस अकिंचिन का जीवन भार बन जायगा ? इस विषय में बाण' भट्ट की क्या शक्ति हो सकती हैं । परन्तु सुचरिता निर्विकार थी । उसने नारायण का प्रसाद समझ कर ही इस सारे क्लेश को आनन्दपूर्वक स्वीकार कर लिया था। | उस समय चन्द्रमा कुछ ऊपर आ गया था । ऐसा मालूम हो रहा था, महावरह धरित्री को अपने दाँत पर रख कर क्षीरसागर से एकाएक निर्गत हुए हैं, और समस्त भुवन-मण्डल, उस ऊध्वेक्षिप्त क्षीर-धारा के प्लावन से क्षीरमय हो गया है। सुचरिता का छोटा-सा वन्दीगृह इस धवल धारा में ऐसा मालूम हो रहा था, जैसे क्षीरसागर के भीतर कोई जलकुक्कुट तैर रहा हो। सुचरिता उस धवलिमा के भीतर तुषार-शोभी कैलास के शृग-देश पर बैठी हुई पार्वती के समान