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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की अात्म-कथा २८५ रहा । मेरा भ्रम उसके इस वक्तव्य से टूट गया कि विरतिवज्र जैसे पहले थे, वैसे अब भी हैं । मैं कितने निचले स्तर में बैठ कर उसकी बात सुनता रहा ! और अब जब उसके सतीत्व का गुणगान करने जा रहा हूँ, तब भी क्या उस अपूर्व शक्तिशाली मनो जन्मा देवता को पहचान सका हूँ, जिसने क्षण-भर में दो हृदयों को एकत्र बाँध दिया था १ मैंने झेप मिटाने के लिए हँसते हुए कहा—ना देवि, मैं अपनी पहुँच के भीतर की सचाई की ही बात कह रहा हूँ। पर एक बात मैं बताऊँ, तो तुम्हें आश्चर्य हुए बिना नहीं रहेगा। सुचरिता ने उत्सुकतापूर्वक कहा-क्या प्रार्थं १: सुचरिता के सहज-मनोहर मुख के औत्सुक्य को देर तक बढ़ाते हुए मैंने धीरे से कहा--'मैं अच्छा भविष्यवक्ता हूँ। काशी-जनपद का वह ब्राह्मण युवा, जिसने तुम्हारे चित्त में अकारण औत्सुक्य भर दिया था, मैं ही हूँ । सुचरिता के नयनपक्ष्म आश्चर्य के मारे जैसे श्राकाश में उड़ गए---उसकी टकटकी जो लगी, सो लगी ही रह गई । देर तक वह इसी अवस्था में रही । फिर सम्हल कर उसने मूछ-निषक्त निगड़बद्ध करतलों को भूमि पर रख कर भक्ति-पूर्वक प्रणाम किया।