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बाण भट्ट की आत्म-कथा

३६१ बाणु भट्ट की अात्म-कथा कि महारानी राज्यश्री का पत्र पढ़कर आप उदास क्यों हो गई ? सेवक पर कृपा-कोप सर्वदा उचित है । यदि मुझसे कोई अपराध नहीं हुआ है तो आपका मुख म्लान क्यों हो गया था ? भट्टिनी ने देर त के अर्थ- हीन दृष्टि से मुझे देखा, मानों उनका मन कहीं खो गया हो, मानों हृदय में ग्राहिका संवेदना अवशिट ही न रही हो, मानों स्नेह का स्रोत सूख ही गया हो, मानों अन्तःस्पंदन एकदम रुक गया हो । उनका लाल मुख क्षण-भर में पारिभद्र के गर्भ पटल की भाँति पाण्डुर हो गया। मैं नई आशंका से फिर सिहर उठा। किन्तु भट्टिनी ने फिर अपने को संभाल लिया । अाँखें झुक गई', अधरोष्ठ स्पंदित होकर रह गये, नासादण्ड में ईपत् संकोच हुआ और अत्यन्त श्राद्र" कंठस्वर से बोलीं-मुझे अवधूतपाद की शरण में ले चलना । वे न हों तो मैं सुचरिता के घर रहूँगी ।' | मुझे भट्टिनी के दोनों प्रस्तावों में से एक भी पसंद नहीं आया। परन्तु इस समय प्रतिवाद करना उचित न समझ कर मौन ही रह गया ; भट्टिनी मेरे मनोभाव समझ गई। उन्होंने उठते हुए कहा--- ‘अथवा जहाँ कहीं भी तुम्हें उचित जान पड़े। परन्तु मैं मौखरियों का या कान्यकुब्जेश्वर के राजवंश का अातिथ्य नहीं स्वीकार कर सकती ।—इतना कह कर वे जल्दी से निपुर्णिका के पास चली गई। मैं वहीं खड़ा रह गया। उस समय दो घटी रात्रि बीत गई होगी । घने अंधकार से दिङमण्डल इस प्रकार अवलिप्त था जैसे किसी ने काले अञ्जन का प्रलेप लगा दिया हो । मेरे मन में अनेक चिन्ताएँ श्री आ कर चली गई। मैं कर्तव्य निर्णय नहीं कर पा रहा था। इसी समय बाहर सहन-सहस्र कंठों का जय निनाद हो रहा है। मैं ठीक समझ नहीं सका कि किस उत्सव का आयोजन हो रहा है। थोड़ा बाहर निकले कर समझ लें, यही सोचकर मैं चला कि भट्टिनी ने पुकार । निपु- णिका की संज्ञा लौट आई थी । भट्टिनी उसे धीरे-धीरे प्यार से कुछ