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बाण भट्ट की आत्म-कथा

३०० बाण भट्ट की आत्मकथा पैदा कर ली हैं। मुझे कोई मार्ग नहीं सूझ रहा है। राजनीति की कुटिल भुजंगी ने मुझे डॅस लिया है, मेरा बचना अब असंभव है। पर भट्टिनी क्या सामन्तों और महाराजाधिराजों की महत्वाकांक्षा की पूर्ति का साधन बनेंगी । यह असंभव है। मुझे कुछ न कुछ रास्ता सोचना ही पड़ेगा। मैं द्वार के बाहर ही इसी सोच में पड़ा बैठा रह गया । ऊपर वृश्चिक राशि पश्चिम प्रकाश में ढलने जा रही थी। उसके पार्श्व में मंगल-ग्रह की लाल तारिका दिखाई दे रही थी । वृश्चिक की पीठ पर मंगल ग्रह एक विचित्र भय का भाव पैदा कर रहा था। कैसा विचित्र योग है । तो क्या संहिताअों में जो कहा है कि वृश्चिक राशि पर मंगल के संक्रमण से धरित्री रक्तकदम से पिच्छिल हो उठेगी, वह सत्य है १ क्या फिर आर्यावर्त की पवित्र भूमि पर वृकों का विकराल ताण्डव शुरू होने वाला है। मैंने मन ही मन नृसिंह भगवान् के उन विकराल नयनों का स्मरण किया जिनके अवलोकन मात्र से असुरराज का वक्षःस्थल फट कर पाटलवर्ण हो गया था । वृश्चिकस्थ मंगल उन्हीं भीषण नेत्रों की छाया है। शायद मेदिनी मानवरक्त से पिच्छिल हो जायगी, शस्यक्षेत्र कर्बर भस्म में रूपान्तरित हो जायेंगे, जानपद-जन दस्युओं द्वारा आरोपित वह्नि-शिखा में होम हो जायँगे, नर-कंकालों की राशियों से मार्ग दुर्लव्य हो उठगे -विकराल काल का ताण्डव आर्यावर्त को घृणित हाहाकार में पटक देगा। । हे भगवान् , क्या यह रक्तस्नान रोका नहीं जा सकता १ क्या राजाओं और सामन्तों को हठधर्मिता की चक्की में इस का रहा सहा अयस्युपेन्द्रः स वकार दूरतो विभिल्सया याक्षण अब्धलधयया । दौथ कोपारुगडया रिपोरुरः स्वयं भयाशिवाभिचास्त्रपाटनम् । -कावरी १३