पृष्ठ:बाणभट्ट की आत्मकथा.pdf/३१५

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षोडश उच्छवास प्रातःकाल जब उठा तो दिन चढ़ आया था। प्रथम दर्शन निपुणिका का ही हुआ है वह सद्यः स्नान से निवृत्त होकर अाई थी--उसके केश तब भी श्राद्र थे । वे पाण्डु-दुर्बल मुख के ऊपर इस प्रकार सुशाभित हो रहे थे, भानों प्रभातकालीन चन्द्रमण्डल के पीछे सजल जलधर लटके हों । श्वेत साड़ी से आवेष्टित उसकी तन्वी अंगलता प्रफुल्ल कामिनी-गुल्म के समान अभिराम दिखाई दे रही थी। यद्यपि उसका मल पीला पड़ गया था, तथापि उसकी खञ्जन- चटुल अाँखें बद्री मनोहर लग रही थीं। आज उस के अधरों पर स्वाभाविक हँसी खेल रही थी। मुझे उठते देख उसने बड़े आदर के साथ प्रणाम किया। मुझे कुछ भी बोलने का अवसर न देकर वह स्वयं ही बोल उठी--‘तुमने मुझे क्षमा कर दिया है । भट्ट १ तुम महान् हो, मैं तुच्छ हूँ, तुमने अवश्य क्षमा कर दिया होगा । पर मैंने तुम्हें अब भी क्षमा नहीं किया। तुमने मौखरियों की रानी का निमन्त्रण ढोकर अपने को भी हीन किया है और भट्टिनी को भी । मुझसे एक का भी अपमान नहीं सहा जायगा। परन्तु मुझे बड़ी ग्लानि इसलिये हो रही है कि मैंने तुम्हें आते ही कठोर वाक्य कहे ।। मैं होश में नहीं थी, आर्य ! मेरा हृदय कमजोर हो गया है, मैं कुछ भी सह नहीं सकतीं । परन्तु मैंने कल जो बातें कही थीं वह टीक हैं । निपुणिका की आँखों से आज अग्नि-स्फुल्लिग के स्थान पर स्मित धारा झड़ रही थी, उसके चेहरे पर तेज के स्थान पर चपलता का वास था, वह प्रसन्न और अग्लान दिखाई दे रही थी। मैंने स्नेहपूर्वक कहा- “मुझ से प्रमाद हो गया है निउनिया, मैं रास्ता नहीं पा रहा हूँ। तु मुझे कर्तव्य बता । अब मेरी ग़लतियों के हिसाब से क्या लाभ है ??