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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाग भट्ट की अस्मि-कथा कुछ बोली नहीं । उसके अधोलंबित ललाट को अपने किसलय-कोमल करतलों में दबाने लगीं। उनकी बड़ी-बड़ी आँखों में अश्रु-विंदु दरक अाए । भट्टिनी के नयनांबु से मेरा हृदये गलने लगा । क्या करू कि इन अखिों में कभी अश्रु दिखाई ही न दें। कैसे क्या कहूँ कि भट्टिनी का कोमल हृदय व्यथा-व्याकुल न हो सके । भट्टिनी ने अपने आँचल से औषधि निकाली और बड़े सुकुमार भाव से उसकी अाँखों और ललाट में प्रलेप करने लगीं। थोड़े उपचार के बाद निपुर्णिका की अखि खुलीं । भट्टिनी को देखकर उसने धीरे-धीरे कातर भाव से कहा-

  • मुझे छोड़ तो नहीं दोगी भट्टिनी ? मैं कान्यकुब्ज के लम्पट- शरण्य

राजा से नहीं डरती । भट्टिनी ने स्नेहपूर्वक डाँटा--‘छिः बहन, तुझे छोड़कर मैं जी सकती हूँ ?? निपुणिका का पांडुर गण्ड-मण्डल दरविग- लित अश्रुधारा से प्लावित हो गया। | नि पुणिका फिर उठकर बैठ गई। वह कुछ बोलना चाहती थी, पर भट्टिनी ने बोलने नहीं दिया । देर तक वह सिर झुकाए भदिनी के पाश्व में बैठी रही, देर तक उसके श्राद्ध केशों में भट्टिनी की अंगुलियाँ उलझी रहीं, देर तक मैं अपने ही विचारों के ताने-बाने में जकड़ा रहा, देर तक वह स्तब्ध नीरवता उस घर में व्याप्त रही। | फिर निपुणिका ने ही भट्टिनी से कहा-भीतर से बाहर तक जल रहा है आयें, मुझे एक बात भट्ट से और कह लेने दो, मेरा अन्त- स्तल धधक रहा है, मैं जल जाना चाहती हूँ, मेरा धूमायित होना समाप्त हो श्राया है । भट्टिनी ने उसके मुख पर अंगुलि रखकर चुप कराते हुए कहा-'केवल एक वाक्य में तुम्हें अपना वक्तव्य समाप्त करना होगा ।' निपुणिका ने निराश होकर कहा, 'तो अभी नहीं कहूँगी ।' भहिनी ने कहा---'यही ठीक है । और उसे खींचकर भीतर ले गई । मैं चिन्ता-कातर होकर वहीं बैठी रह गया । एक वृद्धा दासी ने आकर संवाद दिया कि भट्टिनी ने स्नान करने