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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की अात्म-कथा निपुणिक ने एक बार फिर कनखियों से डाँटा । बोली-पान खाओ । अब उसका गला स्वाभाविक हो गया था। मैंने पान ले लिया। | जहाँ जा रहा था, वहाँ जाना नहीं हुआ। मैं इस अभागिनी के दुःख-सुख को अच्छी तरह समझे बिना अब उठे नहीं सकता था। बहुत दिनों के बाद अपनी असावधान हँसी के कारण उत्पन्न हुई परिस्थिति को सुधारने-सम्हालने का अवसर मिला था । न जाने मेरी प्रमत्त किलकार ने इस दुःखिनी के किस सुकुमार घाव की ताज़ा कर दिया था, निरन्तर ६ वर्षों से न जाने वह कहाँ-कहाँ मारी-मारी फिरी है और इन दिनों न जाने किस अभाग्य के नाले में छटपटा रही है, बाण भट्ट यह सब जाने बिना नहीं टल सकता। इसी सहानुभूति मेय हृदय ने तो इसे अवारा बना दिया है । जो प्रमत्त हँसी ६ वर्षों से मेरा हृदय कुरेद रही है, उसका प्रायश्चित्त अाज अाँसुओं से करना होगा। मुझे इस विषय में कोई सन्देह नहीं कि निपुर्णिका का चरित्र यहाँ के सदाचारियों की दृष्टि में अत्यन्त निकृष्ट है । इस दूकान पर बैठे हुए निश्चय ही मैंने अपने को काजल की कोठरी में बन्द कर दिया है। सब है; पर निपुणिका मुझ से बड़ी है, मूल्यवान् है। सारे जीवन मैंने स्त्री-शरीर को किसी अज्ञात देवता का मन्दिर समझा है। आज लोगों की आलोचना के डर से उस मन्दिर को कीचड़ में धंसा हुआ छोड़ जाना मेरे वश की बात नहीं है। मैंने फिर पूछा-निउनिया, तू क्यों चली आई, अब तक कहाँ रही, अब क्या कर रही है ? मैं तुझे दुःखी देख रहा हूँ। तुझे इसी अवस्था में छोड़ कर मैं यहाँ से टल नहीं सकता । बता, किस बात पर तू भाग आई थी १ जे निरन्तर छः वर्षों से मेरा चित्त मुझे धिक्कार रहा है; मुझे ऐसा लगता है कि मैं ही तेरे समस्त दुःखों का मूल हैं। एक बार तू अपने मुख से कह दें कि यह बात ग़लत हैं। मैं क्या निर्दोष हूँ । । निपुणिका ने दीर्घ निश्वास लेते हुए कहा--‘हाँ भट्ट, मेरे भाग