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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बारा भट्ट की आत्मकथा का मन रखने के लिये मैंने कह दिया कि सचमुच ही मूर्ति हँस रही है। रानो प्रसन्न हुई। उन्होंने अादर पूर्वक फिर कहा----‘आर्य वाभ्रव्य, महाराज से विवाह होने के पहले मेर। वाग्दान हो चुका था। मेरे पिता कलूतराज नहीं हैं। मैं अपहृता बालिका हूँ । छलपूर्वक मेरा विवाह धूतों ने महाराज से करा दिया था । इस अन्तःपुर में मैं बहुत रो चुकी हूँ । महाराज से मैंने स्पष्ट कह दिया था कि मैं तुम्हारी पत्नी नहीं हूँ । जिस पुरुष को मेरे पिता ने वाग्दान किया था मैं उसी की पत्नी हूँ । महाराज ने मेरे भावों का आदर किया। उन्होंने बड़े सौजन्य और स्नेह से मुझे रखा है । परन्तु आज तक वे मुझे पत्नी रूप में पाने का मोह छोड़ नहीं सके हैं। जिस युवक को मेरे पिता ने मेरा वर चुना था वह निराश होकर संन्यासी हो गया । वह विंध्य मेखला के धूम्रगिरि में न जाने क्या तप कर रहा है । अर्य, मुझे बराबर उसकी पुकार सुनाई देती है । लेकिन कल रात को मैंने जो कछ सुना है वह रोमाञ्च कर है । मुझे संसार त्याग करना ही पड़ेगा । तुम महाराज को समाचार दो । देर होने से अनर्थ हो जायगा । मैंने सिर झुकाकर अनिच्छापूर्वक उनकी आज्ञा का पालन किया । भट्टिनी ने बीच में टोंक कर पूछा-रानी का नाम महाभाया था आर्य !' बाभ्रव्य के स्वीकार करने पर वे विस्मित होकर मेरी ओर देखने लगीं । निपुणिका ने अाँखे फैलाकर कहा-‘आश्चर्य है ! वृद्ध आगे बढ़ा- | *महाराज ने जब यह समाचार सुना तो वे अत्यन्त उद्विग्न हो उठे। उन्होंने उसी समय रानी के पास जाने की उत्कण्ठा प्रकट की। उनके आदेश से मैं ही उन्हें लेकर रानी के पास आया । महाराज ने रानी के संन्यास-वेश को देखा तो रो पड़े । बोले-‘देवि, अन्त:पुर के विरुद्ध वेश धारण करने क्या कारण अाज उपस्थित हो गया है मुझसे अनजाने में कोई अपराध हुअा है क्या ?