ज़ोरदार समर्थन है। कथा का जिस ढंग से प्रारंभ हुआ है उसकी स्वा-
भाविक परिणति गूढ़ और अदृप्त प्रेम में ही हो सकती है। मुझे कथा
के स्वाभाविक विकास की दृष्टि से इसमें कोई विरोध या दोष नहीं दिखता
पर बारण भट्ट की लेखनी से संभवतः अधिक स्पष्ट और अधिक दृप्त
अभिव्यक्ति की आशा की जा सकती हैं। फिर कादम्बरी में प्रेम के
जिन शारीरिक विकारों का--अनुभावों का, हावों का, अयत्नज अलं-
कारों क--प्राचुये हैं उनके स्थान में कथा में मानस-विकार का--
लज्जा का, अवहित्था का, जट्टिमा का--अधिक प्राचुर्य है। यह बात
भी मुझे खटकने वाली लगी। मैं उदाहरण देकर इन बातों को सम-
झाने का संकल्प कर रहा था ।
ऐतिहासिक दृष्टि में तुवमिलिन्द एक समस्या हैं । बाभट्ट ने
कादम्बरी के प्रारंभ में भर्वशर्मा की स्तुति की हैं । ये बाणभट्ट के गुरु थे।
इस कथा में अवधून अघोर भैरव के प्रति जागभट्ट की आस्था अधिक
प्रकट हुई है, भवु शर्मा के प्रति कम । धावक के शब्दार्थ को देख
कर कुछ यूरोपियन पंडितों ने अनुमान भिड़ाया है कि यह कवि जाति
का धोबी था ! कथा से यह बात समर्थित नहीं होती । इतिहास की
दृष्टि से छोटी-मोटी कुछ असंगतियाँ चाहे निकल आवे पर अधिकांश
में उपलब्ध ऐतिहासिक सामग्री से कथा की सामग्री का कोई विरोध
नहीं है । विशेष लक्ष्य करने की बात है इस कथा के भौगोलिक स्थान ।
स्थाएवीश्वर और चरणाद्रि दुर्ग ( चुनार ) का नाममात्र का उल्लेख
है, परन्तु भद्रश्वर दुर्ग और उसके समीपवर्ती स्थानों का कुछ अधिक
वर्णन है जो काफ़ी सकेतपूर्ण हैं।
कथा से रत्नावली’ की ‘जितमुइपतिना'-श्लोक वाली समस्या का
पूर्ण समाधान हो जाता है । यह श्लोक बहुत दिनों से पंडितों के
वाग्विलास का विषय बना हुआ है। अभी तक इसकी कोई अच्छी
व्याख्या नहीं की जा सकी है । तरह-तरह के अटकल लगाए गए हैं।
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बाण भट्ट की आत्म-कथा