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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की आत्मकथा को यह बात मालूम है; पर जनता में अब भी मौखरिवंश का मान है, इसीलिए साहसपूर्वक इस छोटे महाराज को हटा नहीं सकते । इसी छोटे महाराज के घर में आज एक महीने से एक अत्यन्त : ध्वी राजकुमारी उसकी इच्छा के विरुद्ध अाबद्ध है । निपुगि का ने यद्यपि यह कहानी बहुत संक्षेप में बताई ; पर उस राजबाला की बात आते ही वह अपने को रोक नहीं सकी। उसने उसकी एक-एक क्रिया का विस्तारपूर्वक उल्लेख किया और अन्त में डबडबाई अाँखों में कहा--- 'भट्ट, वह अशोक-वन वी सीता है, तुम उसका उद्धार करके अपना जीवन सार्थक करो । जीवन सार्थक करने का साधन निपुणिका ने स्वयं दे दिया था । वह एक छोटा-सा विष-दिग्ध छुरा था, जो कंचुकी में आसानी से छिपाया जा सकता था। इसे देते समय उसने जरा हँस कर कहा था--`इसकी कोई आवश्यकता नहीं होगी, भट्ट, पर रख लेने में हर्ज ही क्या है । मैं समझ गया, प्राण लेना या देना जरूर नहीं है; पर लेना या देना पड़ ही जाय, तो नुक़सान क्या है !! मैंने निपुणिका की अोर हँस कर देखा । वह भी हँसने लगी। हम दोनों चुपचाप चले जा रहे थे। मैं स्त्री-वेश में मानो कुछ बदल गया था, क्योंकि एक अकारण भीरुता रह-रह कर मुझे सचेत कर देती थी, कसे हुए कंचुकबन्ध मानो किसी अनजाने महागौरव के निरोध-यन्त्र बने हुए थे और अगुल्फ-लम्बे उत्तरीय ने किसी अननुभूत सौन्दर्य लक्ष्मी को सारे बाह्य-जगत् से अलग छिपा रखा था । राजमार्ग शान्त ही था, केवल दूर से किसी अविपुल जन- समारोह की ध्वनि सुनाई दे रही थी। निपुणुका ने धूम कर मेरी ओर देखा और हँस कर पुकार-‘सुदक्षिणे ! मैं ज़रा चौंककर उसकी ओर देखने लगा । दक्ष भट्ट का यह सुकुमार संस्करण प्रथम सम्बोधन में ही स्पष्ट हो गया। मैंने ज़रा मुस्कुराकर क्षीण स्वर में उत्तर दिया-‘हुला निपुगि के ! नियुणिका की श्राखें अनिन्दातिरेक से विकच पुण्डरीक के