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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की अात्म-कथा । पर उसे अस्वाभाविक बनाना तो ठीक नहीं । नहीं हला, आज लज्जा-संकोच को दूर रख । आज तरुणियों के उन्मत्त विलास की तिथि है। मैं समझ गया है जहाँ से संशय था, वहाँ आज उन्माद होगा । चन्द्रमा अब धीरे-धीरे ऊपर आ गया था । जो-कुछ अन्धकार है, उसे दूर कर देने को कृत संकल्प था। हम राजकुल के द्वार देश पर । गए। निपुसिका ने बार-बार छोटे राजकुले की बात बताई थी। मुझे उस समय राजकुल की अपेक्षा छोटा' शब्द ही ज्यादा मुखर जान पड़ा था । इसी लिए मैंने मन-ही-मन एक छोटे अन्तःपुर की कल्पना की थी । पर द्वार पर आते ही मुझे अपनी धारणा बदल देनी पड़ी। द्वार पर विस्तीण राजकुल की वृक्ष-वाटिका दूर तक फैली हुई दिखाई दे रही थी। बाहर की ओर अशोक, पुन्नाग, अरिष्ट, शिरीष आदि के छायादार वृक्ष लगे हुए थे ! उनकी नील सधन पत्र-राशि पर ज्योत्स्ना बिछला रही थी ! मेरे सामने लौहगल-युक्त विराट कपाट और सशस्त्र रक्षक न होते, तो मैंने उसे चाँदनी रात में इस विशाल राजकुल को एक घना जंगल हो समझा होता । उस समय मुझे ठीक मालूम नहीं हो सका कि इस राजकुल की वहि:प्रकोष्ठ किधर हैं । केवल एक बंकिम मार्ग से निकल जाने के कारण इतना ही अनुमान कर सका कि दाहिनी ओर पुरुषों का वहि:प्रकोष्ठ हागर । द्वारी निपुणिका को पहचानता था, हमारे भीतर जाने में कोई बाधा नहीं हुई ! नियुणिका ने ज़रा हँस के द्वारा को ताम्बूल-चीटिका देते हुए कहा-'नाग, क्या खबर है १३ नाग ने हंसते हुए कहा---'हु इदंग है, पर क्या है ? हम दोनों भातर चले गए। वाटिका की वंथियाँ पर्याप्त चौड़ी थीं ; पर दोनों ओर के सघन वृक्षों की छाया के कारण अन्धकार दिखता था । थोड़ा चक्कर काटकर हम अन्तःपुर के द्वार पर आए। वहाँ द्वार के एक पाश्र्व में एक द्वार-रक्षिणी खो बैठी