पृष्ठ:बाणभट्ट की आत्मकथा.pdf/५१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
३९
बाण भट्ट की आत्म-कथा

में लिपटी हुई एक वीणा रखी थी। दूसरी खुटियाँ खाली पड़ी थीं, क्योंकि उन पर की विपंची उतर कर पूजापरायण राजबाला की गोद में पड़ी हुई थी । दीवार की दूसरी और श्वेत पट्ट लगे हुए थे, जो या तो हाथीदाँत के होंगे या वैसे ही किसी शुक्ल प्रस्तर के बने होंगे। उन पर चित्र-फलक, तूलिका और रंग के डिब्बे और भूर्जपत्र पर लिखी हुई एक पुस्तक रखी हुई थी । यह पुस्तक इस देश में प्रचलित पोथियों से कुछ भिन्न थी। उसके पत्रे खुले हुए नहीं थे और पुढे बंधे दिख रहे थे। एक अन्य नागदन्त (खैटी) पर कुरण्टक-माला बड़ी सुकुमार भंगी में लटकाई गई थी। शायद कुरण्टक-माला का यह गुण कि वह बहुत देर तक सूखती नहीं, उसे यहाँ ले आने में समर्थ हुआ था । गृह में सामान बहुत थोड़े थे; पर वह फिर भी अत्यन्त भरा- पुरा दिखता था। इसी समय उस राजकन्या ने चीणा बजाना शुरू किया । धीरे- धीरे वह अत्यन्त तन्मय हो गई। मैंने इस बार स्वाभाविक संकोच छोड़ कर इस कमनीयता की मूत्ति की ओर देखा । उसको देख कर अत्यन्त पतित व्यक्ति के हृदय में भी भक्ति हुए बिना नहीं रह सकती। उसके सारे शरीर से स्वच्छ कान्ति प्रवाहित हो रही थी । अत्यन्त धवल प्रभा-पुंज से उसका शरीर एक प्रकार ढंका हुआ-सा ही जान पड़ता था, मानो वह स्फटिक गृह में आबद्ध हो, या दुग्ध-सलिल में निमग्न हो, या विमल चीनांशुक से समावृत हो, या दर्पण में प्रतिबिम्बित हो, या शरद्कालीन मेघपुंज में अन्तरित चन्द्रकला हो । उसकी धवल कान्ति दर्शक के नयन-मार्ग से हृदय में प्रविष्ट होकर समस्त कलुष को धवलित कर देती थी, मानो स्वर्मन्दाकिनी की धवल धारा समस्त कलुषि-कालिमा का क्षालन कर रही हो । मेरे मन में बार-बार यह 'तु, वात्स्यायन के कामसूत्र का नागरक गू-