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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की ग्राम-कथा ४९ आकाश-गंगा के पुलिन से उदास भाव से पश्चिम जलधि के तट पर उतर गया। समस्त दिङ मण्डल वृद्ध रंकुमृग की रोमराज के समान पांढुर हो उठा। हाथी के रक्त से रंजित सिंह के सटाभार की भाँति या लोहित वणं लाक्षारस के सूत्र के समान सूर्य किरणे आकाश-रूपी वन भूमि से नक्षत्र-रूपी फूलों को इस प्रकार झाड़ देने लगीं, मानो वे पद्म- राग-मणि की शलाकाओं से बनी हुई झाडू हों । तारिकाएँ लुप्त होने लगी। दो-एक जो अब भी बच रही थीं, वे पश्चिमाकाश-रूपी समुद्र- तट पर मोपियों के उन्मुक्त मुख से बिखरे हुए मुका-पटल की भोलि दिख रही थी । पूर्व की ओर प्रकाश अविर्भूत होने लगा । धीरे-धीरे शिशिर-बिन्दु को वहन करता हुआ, पद्म-वन को प्रकम्पित करता हुआ, परिश्रान्त नगर-रमणियों के धर्म-बिन्दु को विलुप्त करता हुश्रा, वन्य-महिषों के फेन-बिन्दु से सिंचा हुअा, कम्पमान पल्लवों और लता- समूहों को नृत्य की शिक्षा देता हुआ, प्रस्फुटित पद्मों का मधु बरसा कर, पुष्प-सौरभ से भ्रमरों को सन्तुष्ट करके मन्द-मन्द संचारी प्रभात- वायु बहने लगा । इस समय तक छोटे राजकुल में न-जाने क्या घटा होगा। शायद सब से अधिक श्रधात वृद्धवाश्रव्य को सहना पड़ेगा। अब तक शायद निपुणिका का घर जला दिया गया होगा। मैंने सन्तोष की सास ली, क्योंकि मैं इस विपत्ति में निपुणिका के साथ था और सौभाग्य- वश इस नगर में मुझे कोई पहचानता भी नहीं। निपुर्णिका के घर से जब हम अावश्यक सामग्री लेने गए थे, उसी समय मैंने अपना शुक्ल वेश धारण कर लिया था। इस समय मैं निरीह ब्राह्मण था । यद्यपि रात-भर की क्लान्ति से मेरा शरीर कुछ अवसन्न हो आया था; पर इस समय आराम करने की प्रवृत्ति मेरे अन्दर नहीं थी । मैं यही सोच रहा था कि किसी अच्छे स्थान पर कैसे जाया जा सकता है। पास की टूटी पुष्करिणी में हाथ-मुँह धोकर मैं देवी के सामने जाकर स्तुति पाठ करने लगा। अनति पश्चात् एक वृद्ध ब्राह्मण चण्डी-