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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की अात्म-कथा ७३ मैंने बात और आगे बढ़ाई-‘आपको यह जानकर आश्चर्य होगा, देवि, कि वे मेरे पितामह के सतीर्थ हैं। मेरे ऊपर भी उनका सन्तान जैसा ही प्रेम है । मैं यह बात बिल्कुल नहीं जानता था । भट्टिनी आश्चर्य के कारण दीर्घ-दीघथित नयनों से मेरी ओर थोड़ी देर तक देखती रहीं। बोलीं-आप एकदम नहीं जानते थे ? ‘एकदम नहीं ।

  • आश्चर्य है !: ।

मैं कुछ संकुचित हो गया । भट्टिनी की सरलता देख कर मैं भी कम श्राश्चर्यान्वित नहीं हुआ। बात को और किसी दिशा में मोड़ने के उद्देश्य से बोला-'उन्होंने कुमार कृष्णवर्धन को बुलवाया है। शायद वे ही कोई व्यवस्था करे ।' सुनते ही भट्टनी को जैसे काठ मार गया । क्षणभर में स्फटिक प्रतिमा की भाँति हतचेष्ट हो गई। निपुर्णिका कुछ शंकित हुई । मैं भी चौंका । बोला- ‘कुछ अनुचित हो गया है क्या, देवि ! | भट्टिनी सँभल गई। बोलीं-मैं स्थाएवीश्वर के राजवंश को घृणा करती हूँ । राजवंश से सम्बद्ध किसी व्यक्ति का श्राश्रय पाने से पहले मैं यमराज का अश्रिय अहण करू गो । भद्र, आचार्यपाद ने मेरी कल्याण-कामना के भ्रम से मेरी सत्यानाश किया है ! मैं धक् से रह गया । लेकिन स्थिति सुकुमार थी। ज़रा-सी त्रुटि होने से इस महीयसी राजबाला का सर्वनाश हो जायगा । मैंने दृढ़ता के साथ कहा-- ‘भद्र, अपि बाण भट्ट पर भरोसा रखें । समग्र कान्थ- कुब्ज की सैन्य-शक्ति भी आपकी इच्छा के विरुद्ध श्रापको कहीं नहीं ले जा सकती । कल तक यह अकिंचन पध-भ्रान्त अकम था। आज से इसे विषम समर-विजयो, वाह लीक-विमर्दन, प्रत्यन्त-बाड़व, देवपुत्र तुवर मिलिन्द की प्राणाधिका कन्या का सेवक बनने का गौरव प्राप्त है। मैं कुमार कृष्ण से निपटने की मर्यादा जानता हूँ। इढ़ रहो,