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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की आत्मकथा राजनन्दिनी ! सिंह-किशोरी का भीत होना अशोभन है। इधर देखिए, आपके सेवक पर भरोसा कीजिए । भट्टिनी अश्वस्त हो गई । टोककर बोलीं-‘सेवक नहीं भट्ट, अभिभावक कहो ! । मैं देवपुत्र तुवर मिलिन्द की प्रणाधिका कन्या की मर्यादा का पालन करना और कराना जानता हूँ। देवि, आप निश्चित माने कि अापके एक इशारे पर बाण भट्ट सम्राट का मुण्ड-पात कर सकता है। जिन लोगों ने सिंह के सटाभार को पैरों से कुचलने का साहस किया था, वे उसका फल पायेंगे । भट्टिनी ने आँगन के कोने में रखी हुई महावराह की मूर्ति को विश्वास के साथ देखा । गम्भीर भाव से, किन्तु मृदुल स्वर में बोलीं---

  • उत्तेजित मत होश्रो, भद्र ! तुम्हारे ऊपर मेरा पूर्ण विश्वास है।

जैसा उचित समझो, करो। केवल इतना स्मरण रखो कि मैं किसी राजवंश के अन्तःपुर में या उससे सम्बद्ध या संलग्न किसी गृह में नहीं जा सकती ।। मैं भी शान्त हो गया । केवल इतना ही कहा-बाण भट्ट इस बात को कभी नहीं भूलेगा। भोजन समाप्त करके मैं घर के बाहर चला आया और चण्डी. मन्दिर के सामने वाले प्रांगण में शुखासन बाँधकर बैठ रहा । न-जाने कब मेरी आँखें लग गई। थोड़ी देर में मुझे किसी के पैरों की आहट मिली । मैं सावधान होकर बैठ गया । देखा, बौद्ध विहारवाला सामनेर आ रहा है । पास अाकर उसने अपेक्षाकृत संयत स्वर में कहा- ‘कल्याण हो भद्र, तत्रभवान् श्राचार्य सुगतभद्र ने आपको स्मरण किया है। कुमार कृष्णवर्द्धन स्वयं विहार में पधारे हैं और वह श्राप से मिलने को उत्सुक हैं । मैं इस सन्देश के लिए तैयार था । सोचा, जाने के पहले एक