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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाणे भट्ट की आत्मकथा में कुछ कर नहीं सकता। मेरा प्रत्येक कार्य देवपुत्र-नन्दिनी के सन्देह की उद्रिक कर सकता है। मेरा रोष और भी उग्र हो जाता है, जब मैं सोचता हूँ कि यह उस देवपुत्र तुवर मिलिन्द की कन्या हैं, जिनके दोर्दण्ड के प्रताप से रोमकेपत्तन के उत्तर के देश काँपते हैं, जिनकी खरतर असि-धारा-स्रोतस्विनी में शाक-पार्थिव-जसे पार्थिव फेन-बुद्बुद् की भौति बह गए, जिनकी प्रतापाथि ने उद्दण्ड बाहीकों को इस प्रकार तोड़ डाला, जैसे क्रीड़ापरायण शिशु छत्रक-दण्ड को तोड़ देते हैं और जिनकी स्फूर्जित दीप्ति कीर्त्तिवह्नि में प्रत्यन्त-सामन्त स्वयं पतंगायमान हो रहे हैं। उस विषम समर-विजयी अज्ञात प्रतिस्पद्धि-विकट देवपुत्र तुवर मिलिन्द की कन्या को दुर्दशापन्न देखकर भी मैं जो-कुछ सहायता नहीं कर सकता, यही विशाल शल्ये मेरे अाहत चित्त से निकल नहीं रहा है। मेरा यह अनुरोध अपि पालन करायँ, आर्य कि तत्रभवती गंगा- तट तक जाते समय पैदल न जायँ और मेरी भेजी हुई शिविका के व्यवहार में संकोच न करें । कुमार कृष्णवर्धन को तत्रभवती का भाई होने का गौरव मिलना चाहिये ।। कुमार के प्रभास्वर मुखमण्डल से कभी रोष, कभी क्षोभ, कभी ग्लानि और कभी बेबसी के भाव टपकते रहे। दिनान्तकालीन मेघ- मण्डल के समान उनके श्राद्गद् मुख-मएल पर अनेक रंग आए और गए । आचार्यपाद ने मेरी ओर देख कर कहा-‘वत्स, मेरी श्रीर से कुमारी से अनुरोध पालन करने का प्रतिवेदन करना। मैं गंगा-तीर पर उससे मिलू गा । अब तुम जाओ ।। अाचार्य के इंगित पर कुमार भी उठे और मैं भी उठ गया ! बाहर निकल कर देखा, तो मध्याहू कालीन सूर्य अपनी सहस्र-सहस तप्त किरणों से अग्नि-स्फुलिंग की वर्षा कर रहा था। वातोद्भुत धूलि से पटलित होकर श्रकाश धूसरायमान हो गया था । विहार का अंगण- कुहिम सूर्य-किरणों से तप्त होकर अग्नि के समान दाहक बना हुआ था