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पृष्ठ:बाल-शब्दसागर.pdf/३८

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श्रतीसार पौधा जिसकी जड़ दवाओं में काम श्राती है । विषा । अतिविषा । श्रुतीसार-संज्ञा पुं० दे० " अतिसार "। श्रतुराई- संज्ञा स्त्री० १. श्रातुरता । जल्दी । २. चंचलता । अतुल - वि० [सं०] १. जिसकी ताल या अंदाज़ न हो सके। बहुत अधिक । २. अनुपम । बेजोड़ | संज्ञा पुं० तिल का पेड़ । अतुलनीय - वि० अपरिमित । अपार । अनुपम । अतुलित- वि० १. बिना तौला हुआ । २. बहुत अधिक | अतुल्य - वि० १. असमान । २. अनु- | बेजोड़ तृप्त अतुल - वि० दे० "अतुल" । अतृप्त - वि० [ मंशा अतृप्ति ] १. जो या संतुष्ट न हो । २. भूखा । अतृप्ति-संज्ञा स्त्री० मन न भरने की दशा । अत्तः-संज्ञा स्त्री० श्रति । श्रधिकता । . ज्यादती । अत्तार - संज्ञा पुं० १. इत्र या तेल बेचनेवाला | गंधी । २. यूनानी दवा बनाने और बेचनेवाला । श्रन्ति: संज्ञा पुं० दे० " श्रत्त" । अत्यंत - वि० बहुत अधिक | हद से ज्यादा | अत्यंतिक - वि० १. समीपी । नज़- दीकी । २. बहुत घूमनेवाला । श्रत्यम्ल- संज्ञा पुं० इमली । वि० बहुत खट्टा । अत्याचार - संज्ञा पुं० १. अन्याय । . ज्यादती । २. दुराचार | पाप । अत्याचारी - वि० अन्यायी । निठुर । ज़ालिम | ३० अथाह प्रत्याज्य - वि० १. न छोड़ने योग्य । २. जो छोड़ा न जा सके । प्रत्युक्ति-संज्ञा स्त्री० बढ़ा चढ़ाकर वर्णन करने की शैली । अत्र- क्रि० वि० यहाँ । इस जगह । * संज्ञा पुं० "अस्त्र" का अपभ्रंश । अत्रक - वि० १. यहाँ का । २. इस लेकका । ऐहिक । अत्रि - संज्ञा पुं० १. सप्तर्षियों में से एक जो ब्रह्मा के पुत्र माने जाते हैं । २. एक तारा जो सप्तर्षि - मंडल में है । श्रथऊ+ - संज्ञा पुं० वह भोजन जो जैन लोग सूर्यास्त के पहले करते हैं । अथक - वि० जो न थके । अश्रांत । श्रथच - अव्य० औौर । और भी । अथना - क्रि० श्र० अस्त होना । डूबना | अथरा - संज्ञा पुं० [स्त्री० अथरो ] मिट्टी का खुले मुँह का चौड़ा बरतन | नींद | श्रथर्व - संज्ञा पुं० चौथा वेद । अथवन्- संज्ञा पुं० दे० "अथर्व" । अथर्वनी -संज्ञा पुं० कर्मकांडी । यज्ञ करानेवाला । पुरोहित । अथवनाः - क्रि० अ० १. अस्त होना । डूबना । २. लुप्त होना | ग़ायब होना । अथवा भव्य ० एक वियोजक अव्यय जिसका प्रयोग वहीँ होता है जहाँ कई शब्दों या पदों में से किसी एक का ग्रहण अभीष्ट हो । या । वा । किंवा | थाई - संज्ञा स्त्री० १. बैठने की जगह बैठक | चौबारा । २. मंडली । सभा | जमावड़ा ! अथाह - वि० १. जिसकी थाह न