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विलासार गंधक गोल फल खट्ट होते तथा खाने और दवा के काम में श्राते हैं । आँवलासार गंधक-संज्ञा स्त्री० खूब साफ़ की हुई गंधक जो पारदर्शक होती है । श्रवा - संज्ञा पुं० वह गड्ढा जिसमें कुम्हार लोग मिट्टी के बरतन पकाते हैं। श्रांशिक - वि० अंश - संबंधी । श्राशुक जल-संज्ञा पुं० वह जल जो दिन भर धूप में और रात भर चाँदनी या श्रीस में रखकर छान लिया जाय । ( वैद्यक ) श्राँस -संज्ञा पुं० दे० "श्रसू" । श्राँसी -संज्ञा स्त्री० भाजी | बैना । मिठाई जो इष्ट मित्रों के यहाँ बाँटी जाती है । आँसू-संज्ञा पुं० वह जल जो श्रख से शोक या पीड़ा के समय निकलता है। श्राँहड़-संज्ञा पुं० बरतन । - अव्य० अस्वीकार या निषेध सूचक एक शब्द । नहीं। श्रा-श्रव्य ० एक अव्यय जिसका प्रयोग सीमा, व्याप्ति, थोड़े और अतिक्रमण के अर्थों में होता है । उप० एक उपसर्ग जो प्रायः गत्यर्थक धातुओं के पहले लगता है और उनके अर्थों में कुछ थोड़ी सी विशे- बता कर देता है; जैसे- श्रारोहण, श्रकंपन। जब यह 'गम्' (जाना), 'या' (जाना), 'दा' (देना) तथा 'नी' ( ले जाना) धातुओं के पहले लगता है, तब उनके अर्थो को उलट देता है; जैसे- 'गमन' से 'आगमन', ७४ आकर्षण 'नयन' से 'नयन', 'दान' से 'आदान' | आइंदा - वि० आनेवाला । भविष्य । संज्ञा पुं० फा० ] भविष्य-काल । क्रि० वि० आगे । भविष्य में । 1 आइ * - संज्ञा स्त्री० श्रायु। जीवन । श्राइना | -संज्ञा पुं० दे० " आईना " । आईन -संज्ञा पुं० १. नियम । २. कानून | आईना-संज्ञा पुं० श्रारसी । श्राईनी - वि० कानूनी । के राजनियम अनुकूल । श्राउ* -संज्ञा स्त्री० जीवन । उम्र । श्राउज -संज्ञा पुं० ताशा । आकंपन - संज्ञा पुं० कपिना | श्रीक-संज्ञा पुं० मदार । श्रकौश्रा । श्राकड़ा। -संज्ञा पुं० दे० "आक" । आक़बत -संज्ञा स्त्री० मरने के पीछे की अवस्था । श्राकर-संज्ञा पुं० १. खान । २. खजाना । ३. किस्म । श्रांकरिक-संज्ञा पुं० खान खोदने- वाला । चाकरी - संज्ञा स्त्री० खान खोदने का काम । श्राकर्ण - वि० कान तक फैला हुआ । श्राकर्ष -संज्ञा पुं० [सं०] १ एक जगह के पदाथ का बल से दूसरी जगह जाना । खिंचाव | २. पासे का खेल | ३. बिसात । चैड़ | आकर्षक - वि० श्राकर्षण करनेवाला । खींचनेवाला । श्राकर्षण - संज्ञा पुं० [वि० आकर्षित, कृष्ट ] किसी वस्तु का दूसरी वस्तु