पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/१२५

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रूठी रानी १२७ और नगर के आदमी प्यासे ही मर जाएगे।" "हाय रे क्षत्रिय जाति ! क्या करू ! फूल-सी बेटी को कैसे विधवा होने दू !" "रानी, चुप रहने ही मे भलाई है।" "मैं चुप हू महाराज, जो जचे सो करो।" "मां, रोती क्यो हो!" "बेटी, क्या करू !" "मैं चली जाऊगी इसलिए.." "हाय बेटी, कहने की बात नही।" "कहो मा।" "अरी बेटी, बेटी तो बिना सीग की गाय है, जब मा-बाप ही उसपर अत्या- चार करें तो किससे कहे ?" "बात क्या है मा?" "तेरे भाग फूटे दीखते हैं।" "समझ गई, तो पिताजी ने दगा विचारी है, आज ही रात को मुझे सुहाग और रंडापा मिलने वाला है, क्यो?" "हाय, चुप रहो बेटी, बात फूटते ही अनर्थ हो जाएगा।" "वाह मा, बात फूटने की एक ही कही !" "बेटी, वह बड़ा जालिम है।" "देखा जाएगा मा, तुम अपना काम करो।" "बस करो सखियो।" "ठहरिए, यह मोतियों की माग तो भरने दीजिए राजकुमारी।" "हाय, पैर हिला दिया, मेहदी गिर गई, अभी उसी तरह बैठी रहो।" "मुझे यह सब नही सुहाता।" "क्यों सुहाएगा, कुमारी जी? अब सुहावना दूल्हा ही सुहाएगा,पर यह फूलो . की चोटी तो गूथने दो।" "तुम सबब ड़ी दुष्ट हो, छोड दो मुझे।" "छोड़ना तो पड़ेगा ही, पर थोड़ी देर और।"