पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/१३२

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१३४ रूठी रानी "ठीक है, पर है बड़ी कड़ी।" "चलिए, हम साथ चलें, देखें तो।" "देखा जाएगा, अभी उसका मान थोड़ा ठण्डा पड़ने दो।" - "देखा उसका घमण्ड ?" "बड़ी रानी को तो उसने मान दिया, बोली भी उसीसे, हमे तो पूछा भी नहीं।" "इसे घमण्ड की पूरी सजा मिलनी चाहिए।" "वह तो रावजी से रूठी ही है, रावजी को भी उससे रुठा देना चाहिए।" "सच कहती हो बहिन ! जो उसने एक बार भी हसकर रावजी की ओर देख लिया तो फिर हम कही की न रही।" "चुप-रावजी आ रहे है।" "कहो, देख ली भट्टानी; कैसी है ?" "बहुत अच्छी, पर अल्हड़ बछेडी है।" "तब दुलत्तिया भी झाड़ती होगी।" "महाराज, हमें क्या, जो पास जाए वह लात खाए।" "जिसे लात खाना होगा वह पास जाएगा।" "बस, बात तो यही है।" "महाराज, हमे क्या ! वह अपने बराबर तो महारानी जी को भी नही समझती।" "मैं तो जाकर पछताई, अजब अनघड़ है! न आखो में लाज, न बातो में लोच।" "अजी वह मिजाज मे मरी जाती है, न आए का आदर, न गए का मान।" "महाराज, रूपवती बहुत देखी है, पर उसका तो दिमाग ही निराला है।" "गोरी चिट्टी है तो क्या-लक्षण तो दो कौड़ी के भी नही। बड़े घर आ गई है, नहीं तो सब मान ठिकाने लग जाता।" "अभी जवानी का नशा है, कल जवानी ढल जाएगी तो सब निकल . जाएगा।" "देखा जाएगा-मैं मालदेव हूं।' आकाश पर बदली छाई थी, रावजी उमा के रूठने से और सौतों के बहकाने