पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/१६७

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१७. नवाब ननकू th नवाब रुपये जेब मे रखकर उठ खडे हुए। मैने कहा-यह क्या नवाब, भाभी का पान बिना खाए और बिना सलाम किए चले जाओगे? "हरगिज़ नही," नवाब ने बैठते हुए कहा-बुलाओ तो उन्हे। मैंने पत्नी को नीचे से बुलाया। वे बच्चो को दूध पिलाने और मुलाने की खट- पट मे थी, नवाब को एक लफगा आदमी समझती थी। मेरे पास उसका आना- जाना और चाहे जब रुपये-पैसे ले जाने को वे हमेगा नापसन्द करती थी। उन्होने आकर कहा-इस वक्त मेरी तलबी क्या हुई है ? "यह इन नवाब साहब से पूछो ।" “यही कहे।" "पान खिलाइए तो कहूं।" "कहो, पान भी मिल जाएगा।" "वादे को सनद नही, झपाके से दो बीड़ा बढिया पान ले आइए।" पत्नी चली गई और एक तश्तरी में कई बीडे पान लेकर लौटी। उनमे से दो जोड़े उठाकर नवाब ने हाथ मे लिए, अदब से मेरी पत्नी के सामने खडे हुए और जमीन तक झुककर कहा-सलाम बडी भाभी, आपका यह गुलाम नवाब ननकू आपको सलाम करता है, और आपकी दुआ की इस्तुजा रखता है। पत्नी मुस्कराई । उन्होने कुछ झेपते हुए कहा--कभी बच्चो को भी नहीं भेजते नवाब साहब; एक बार भेजो। "जो हुक्म बड़ी भाभी, सलाम ।" नवाब साहब ने और एक सलाम मुकाई और चले गए। मेरी नीद बहुत रात तक गायब रही। मै अन्दाज़ा न लगा सका कि यह व्यक्ति ससार के सब मनुष्यो से कितना ऊचा है ! । कमरे मे एक ओर अगीठी जल रही थी। रजा साहब पलग पर लेटे थे और एक खिदमतगार धीरे-धीरे उनके पाव सहला रहा था। राजेश्वरी नीचे फर्श पर . बैठी छालिया काट रही थी। चादी का पानदान सामने खुला रखा था। राजा साहब गगा-जमुनी की गुड़गुड़ी पर अम्बरी तम्बाकू पी रहे थे और धीरे-धीरे राजेश्वरी से बाते कर रहे थे।