पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/१८४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१८८ द्वितीया स्वर में अपनी इच्छा प्रकट करने, कभी-कभी उसी तरह स्नान का अनुरोध करने और छोटी-मोटी व्यवस्थाओं मे उनका हाथ बंटाने लगी। फिर जब वे सन्ध्या के समय खोमचेवालों की भरपूर भीड़ में थोड़े सकोच के बाद हर की पैड़ी के विशाल प्राङ्गण मे आनन्द के साथ फालूदा, कुल्फी की बरफ और दहीबड़े खाने लगे, तब चन्द्रनाथ की मानो हृद्वेदना कतई सो गई। वे एक बार उल्लास के साथ द्वितीया पत्नी के साथ प्रमोद मे लगे। आनन्दी ने सोचा, भय की कोई बात नही है। ये देखने में खूब लम्बे-चौड़े अवश्य है, जैसे हमारेपडोस के वे सेठ जी थे, पर वैसे बुरे मिजाज के नहीं है । हंस- कर बात करते है, दस बार आवश्यक वस्तु की पूछताछ करते है, हर समय मन बहलाते है; फिर अपने पति तो हैं, गैर तो नहीं। वह मस्तक पर रेखा डालकर थोडी गम्भीरता से सोचती, और इस प्रकार साहस और गृहिणी के गाम्भीर्य का उसके मन मे धीरे-धीरे उदय होता। दो-तीन दिन बाद एक बार उसने कहा- बाजार की पूरियां आप कब तक खाएगे, सामान लाइए तो रसोई बन जाए चन्द्रनाथ ने चाद पाया। जिस समय वे प्रथम बार पत्नी के हाथ की रसोई खाने बैठे, कच्ची दाल और जली रोटियां सराह-सराहकर खाने लगे। धुएं के मारे बालिका की आखे अन्धी हो रही थी। अकेली, बिना सरो-सामान के रसोई बनाने का यह उसका प्रथम प्रयास और प्रथा साहस था। भोजन करके चन्द्रनाथ जब थाली को रुपयो से भरकर उठे, तो आनन्दी एकबारगी ही विह्वल हो उठी। वाह ! इनके बराबर प्रिय और कौन है ! उस दिन उसने पति की जूठी थाली मे भोजन करके एक अभूतपूर्व आनन्द अनुभव किया। और जब चन्द्रनाथ मीठी नीद ले रहे थे, वह चुपके से आई और पैरो के पास बैठकर धीरे-धीरे पैर दबाने लगी। चन्द्रनाथ की आंखें खुलीं। देखा, पत्नी पत्नी के स्थान पर उपस्थित है। उन्होंने अधीर होकर उसे खींचकर हृदय से लगा लिया। अतिशय आनन्दातिरेक से उनका शरीर बेसुध हो गया। और फिर वे थोड़ा सचेत होते ही किसी अतयं शक्ति के प्रभाव से, उस वेदनास्थल पर शीतल स्पर्श-मरहम लगाकर फूट-फूटकर रो उठे। बहुत रोए, ज्यों-ज्यो उन्हे सुख मिलता था, उनका रुदन फूटता था। इस रुदन के अज्ञात कारण को न जानकर, आनन्दी बहुत घबराई। उसने फौरन प्रश्न किया-यह क्यों? इस प्रश्न में घूघट भी खसका, स्निग्ध नेत्रों ने प्रश्नों का तांता बांध दिया। फिर उसने अपने आंचल से पति के आंसू पोछ डाले। चन्द्रनाथ ने थोड़ा शान्त होने पर