पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/१९०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१६४ द्वितीया चन्द्रनाथ कुछ देर स्तब्ध बैठे रहे । फिर उन्होने तीक्ष्ण दृष्टि से पत्नी को देख- कर कहा--प्रिये, मूर्ख तो मै हू; तेज आच मे रोटी सिकती नही, जलती है। ठहरो, तुम इतना समझ सकती हो, यह मैं नहीं जानता था। तुम्हे अल्पवयस्क समझकर इधर तुम्हारी बुद्धि पर मै पूर्ण अविश्वास करता था, और उधर तुम्हारी बुद्धि से सहस्र गुणा भार उसपर लादता था । आज से मैं तुम्हारा गुरु नही, शिक्षक नही, शासक नही–पति हू, मित्र हू । आओ, मैं स्वार्थ का त्याग करूगा। आनन्दी के नेत्रों में एक और ही प्रभा थी। वह बालिका की नही, नारी की नही, पत्नीत्व के गहन उत्तरदायित्व को व्यक्त कर रही थी। चन्द्रनाथ ने देखा, वे कुछ कह न सके। आनन्दी फीकी पड़ने लगी। उसकी मुट्ठी शिथिल हुई और चन्द्रनाथ का हाथ उसके कर-पल्लव से पृथक् हो गया। चन्द्रनाथ रोए नहीं, एक अतयं वेदना एव मार्मिक आलोचना उनके मन में उठ रही थी। उन्होने अतिशय प्रेम और आदर से आनन्दी का चुम्बन लेने का इरादा किया । पर आनन्दी वहा थी कहा? चन्द्रनाथ ने उसे निर्जन प्रभात मे, आनन्दी के अभाव मे उसके शरीर को जी भरके एक बार प्यार किया और फिर उसके उन्मीलित नेत्रो को अनन्तकाल के लिए आच्छादित कर दिया।