पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/१९६

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२०० पुरुषत्द थी। हीरा को उस मूर्ति पर कितना क्रोध, कितनी विरक्ति और कितनी अवहे- लना थी। परन्तु वह मूर्ति मानो उसके नेत्रो मे तप्त शलाका की तरह घुस गई थी। वह कभी-कभी बहुत ही झुझला उठती थी। वह सोचती थी, कैसा वह आदमी था मानो गूगा और बहरा, बिल्कुल अन्धा, मूर्ख, गवार ! किन्तु ? किन्तु वह नोट ? नोट न था, रद्दी कागज का टुकडा था। तब क्या वह कुछ और ही था ? क्या वह इस रूप को सचमुच ठुकरा गया? मेरे पसीने पर भी उसकी मूछ का एक बाल न खिला? वह एक बार भी न हसा, न हिला, न बोला; वह मनुष्य न था, पत्थर था। निर्मम हीरा सोचने लगी, क्या अब वह न आएगा? मै उसे भाई ही नही, यही तो बात है ! न मेरा रूप, न संगीत, न और कुछ ही उसे पसन्द आया; पर फिर वह नोट क्यों फेक गया? और मैंने ही क्यो ले लिया ? जिसे मै पसन्द ही नहीं, जो मुझपर, मेरी कला पर रीझा ही नहीं, उसका रुपया मैंने क्यों लिया ? हाय ! वह मुझे हरा गया, मेरा अपमान कर गया। होरा गुस्से से होठ चबाकर उठी, पूरे कद्दे-आदम शीशे के सामने उसने एक बार अपने अनिंद्य यौवन की. परछाईं को देखा, और फिर वह रोती हुई कुर्सी पर बैठ गई। उसने निश्चय कर लिया कि बदला लूगी। राजेन्द्र आते ही हीरा के अत्यन्त निकट बढ़ आए। उन्होने उसे उदास देख- कर कहा-यह क्या ? क्या आज बादल बरसने वाले है ? हीरा ने सिर उठाकर राजेन्द्र को देखा, सभलकर बैठी और बोली--आप क्या खेती बोकर आए हैं, जो बरसने की इतनी इन्तज़ारी मे हैं ? राजेन्द्र ठण्डे पड गए। उन्होने कहा--आज तो बहुत ही नाराज मालूम होती हो। क्या मेरी कुछ खता हुई ? "यह खूब, बरसते बरसते आपको नाराजी की भी आंच लग गई ?" कुछ भी न समझकर राजेन्द्र जोर से हंस पड़े। हाय ! कितना पुरुषत्वहीन हास्य था वह । वे और नजदीक खिसककर हीरा से सटकर बैठने लगे । हीरा ने दूर हटते हुए कहा : हां, आपके जन दोस्त का क्या हाल है ? फिर कभी तशरीफ नही लाए !शायद गाना पसन्द नही आया। आजकल के लोग गुणों की कद्र कम करते है, समझते भी कम हैं।" पिछली पंक्ति कहते-कहते हीरा की आंखो मे सौ रुपये का नोट आ