पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/१९७

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पुरुषत्व २०१ खडा हुआ, वह स्वयं ही अपनी बात पर शकित हो गई। राजेन्द्र का उधर ध्यान न था, वे बोले-उस दिन के बाद उन्होने कुछ चर्चा ही नही चलाई, मगर गाना वे नहीं समझते यह न कहना; वे स्वय बहुत अच्छे गवैये है, सितार और दिलरुबा बजाने मे शहर भर मे उनकी जोड का कोई नहीं। आज मैं उन्हे लाऊगा। हीरा विकल हो उठी। आह ! उस दिन के बाद फिर चर्चा ही नही ! मुझे धिक्कार है; यह रूप, यह यौवन, सब धिक्कार-धिक्कार ! हीरा इन तूफानी विचारो को जब्त न कर सकी। वह उठ खडी हुई और सोचने लगी, तब उस आदमी को प्रतिक्षण स्मरण करके मैंने अपना ही अपमान किया। उसने घुणा-मिश्रित स्वर मे कहा—जिसकी मर्जी हो वह आए या न आए, हमलोग किसीको बुलाने तो नहीं जाते ?-राजेन्द्र फिर रात को उन्हे लाने का वादा करके चल दिए। . हीरा ने पक्का इरादा कर लिया कि आज वह उस मगरूर पुरुष का अवश्य अपमान करेगी। परन्तु ज्यों-ज्यों दिन ढलता गया,हीरा की अपने शृगार की चिता बढती गई। वह व्याकुल हो गई। वह कौन-सी पोशाक पहने, यह कुछ निर्णय ही न कर सकी । उसने कई पोशाकें पहनी और उतारी, कई ढंग से बालो का जूडा बाधा और खोला, कई इत्र लगाए और मुंह धोया; पर किस रूप मे, किस रग मे, किस साज में आज वह अपने यौवन को प्रकाशित करे-वृह निर्णय न कर सकी। उसने हठात् मां से पोशाक का प्रस्ताव किया। बुढ़िया अवाक रह गई-पोशाक का क्या मतलब? आज क्या कही जाना है ? हीरा मेंप गई। वह अपनी कोठरी मे भाग गई। सन्ध्या हुई । अन्धकार के हृदय को विदीर्ण करके हीरा ने बिजली का प्रकाश कमरे में फैलाया और ताजे फूलो का एक बडा-सा गजरा गले मे डाल, वह उस छुकड़ा भर रूप और यौवन को लेकर उस प्रकाश के हृदय मे सचमुच हीरे ही के समीन विराजमान हुई। दोनों मित्रो ने घर मे प्रवेश किया। मन्त्र-मुग्धा सर्पिणी की तरह हीरा खडी हो गई। मित्र बैठ गए। हीरा खडी रही, रामेश्वर ने क्षणभर उसके मुख की ओर देखकर कहा-बैठिए । हीग बैठ गई ! गर्व और उल्लास उसके यौवन को अरक्षित छोड भागा;