पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/२१३

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कन्यादान २१७ "मगनी ? क्या तुम डेरा गाजीखां के आर्यसमाज के प्रधान लाला धर्मराज के पुत्र हो?" "जी हां।" "देशराज?" "जीहा।' देवराज जी ने युवक के दोनो कंधो पर हाथ रखकर कहा, "ओहो, तुम इतने बड़े हो गए ! ऐसे तगडे जवान ! मैने तुम्हे जरा-सा देखा था। यहा आए कब?" "अभी।" "मुझे लिखा क्यो नही ?" "जरूरत क्या थी?" "अच्छा, स्नान-भोजन करो। शेप बाते फिर होगी।" "मुझे अभी लौटना है । जिस काम से आया हू, उसे करके लौट जाऊगा।" "तुम इन्दु से क्यो मिलना चाहते हो?" युवक फिर क्रोध मे भरकर देवराज जी को घूरने लग गया। देवराज जी ने कहा-तुमको एक वात शायद नही मालूम ! "वह क्या ?" "इन्दु के पिता ने अपना विचार बदल लिया है, और इन्दु मे तम्हारी मुला- कात न हो सके, इसकी हिदायत कर दी है।" "पर मैं इन्दु की सम्मति जानना चाहता हू "उसकी सम्मति से क्या होगा ?" "इन्दु बच्ची नही, वह अपना हानि-लाभ स्वय सोचेगी।" "पिता के रहते यह कैसे हो सकता है ?" "आप जो यह कहते है कि हमें युवक-युवतियो के स्वयवर करने है, सो क्या इसी भांति करेंगे? स्वाधीनता भी देते है, युवावस्था तक क्वारा भी रखते है, विवाह-विषय पर सोचने का उन्हें अवसर भी देते है, पर निर्णय करते हैं आपअपनी ही इच्छा से । जैसे बच्चो का विवाह हिन्दू करते है, वैसे बचपन ही में क्यो नही आप ब्याह करते ?" "सब बातें धीरे-धीरे होगी।" "खैर, मैं इन्दु की सम्मति लूगा । वह चाहेगी, तो मैं उसके पिता की बिना