पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/२१४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२१८ कन्यादान मर्जी ही ब्याह करूगा।" "यह संभव नही। उसके पिता की बिना मर्जी हम तुम्हे उससे मिलने नहीं दे सकते।" "यह तो अत्याचार है । खैर, आप उससे पूछ लीजिए कि क्या वह अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़ है । यदि ऐसा होगा, तो मैं आगे कुछ उपाय सोच लूगा 1" "ऐसा नही हो सकता। उसके इच्छानुसार काम नहीं हो सकता।" "तब आप उससे यह बात न पूछेगे?" "नहो।" “न मिलने ही देगे?" "नही।" “यदि मैं एक पत्र लिखू, तो उत्तर मगा देंगे?" "कुमारी कन्या को इस विषय पर पत्र लिखना अनुचित है।" "पर वह बालक तो नही ?" "फिर भी कन्या है।" "दुनिया भर की कन्याए भी इस विषय पर स्वय ही विचार करती है।" "भारत मे वह समय नहीं आया।" "आप उसे आने भी न देगे, बल्कि भयानक परिस्थिति पैदा कर देंगे। बहुत अच्छा, मै जाता हू। आप उसके पिता को लिख दें कि वह अपनी कन्या का चाहे भी जहा विवाह कर दें। मेरी प्रतीक्षा न करें।" युवक उठकर चलने लगा। लाला देवराज ने ठहराने की बहुत चेष्टा को, युवक चला ही गया। पर आगरा पहुचकर देशराज सीधे स्टेशन से ठेकेदार साहब के यहा पहुचा। उसने छूटते ही कहा-मैने आपका वचन स्वीकार करने का निर्णय कर लिया है। वहां मैं जवाब दे आया हू, और रास्ते-भर मैंने सोचकर विचार पक्का कर लिया है। ठेकेदार साहब अपनी बैठक मे बैठे थे। उनके सामने और दो व्यक्ति थे . एक युवक और एक दाढ़ी-मूछों से भरपूर साधु-वेषधारी। ठेकेदार जी ने गंभीर मुद्रा से कहा-देशराज जी, आपने देर मे निर्णय किया। मै इन युवक से कन्या का सम्बन्ध तय कर चुका । ये गुरुकुल के स्नातक पडित