पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/२१६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२२० कन्यादान स्नातक पं०रुद्रचन्द्र विद्यालंकार,आयुर्वेदनिधि,तर्कशिरोमणि स्थानीय आर्य- समाज मदिर में ठहरे थे। देशराज ने वही पहुंचकर उनसे कहा-मैं आपसे कुछ, बातें एकान्त में किया चाहता हूं। "आप वही सज्जन है, जो प्रधान जी के घर लाल-पीले हो रहे थे ?" "जी हां।" "और आप बातें भी उसी ढग की करेंगे?" देशराज ने गुस्सा पीकर कहा-मगर आपके फायदे की। "तब कहिए।" देशराज ने चिट्ठियों का एक गट्ठा जेब से निकालकर कहा : "ये चिट्ठियां आपकी भविष्य धर्मपत्नी की हैं । ये सभी प्रेम-पत्र है जो उसने समय-समय पर मेरे पत्रो के उत्तर मे लिखे है। वह मुझसे प्रेम करती है। मैं भी उसे पसन्द करता हूं। फिर इस सम्बन्ध के लिए उसके पिता ने मुझे महीनो हठ करके राजी किया है, और मैंने इस सम्बन्ध के लिए अपना पूर्वनिश्चित रिश्ता भी तोड़ दिया है। आप विद्वान है, और गुरुकुल के स्नातक है। आपको उचित नहीं कि ऐसे मामले में पैर बढ़ाए।" "परन्तु जब उसके पिता की इच्छा है, तब मै क्या कर सकता हूं?" "कैसी अद्भुत बात है ! सभी एक स्वर अलापते हैं । अजी, कन्या क्या पिता की जरखरीद जायदाद है, या उसकी मेज़-कुर्सी, कलम-दवात या कोई रद्दी-सी किताब है, जिसे वह चाहे जिसे दे सकता है? आखिर लड़की भी एक जीव है, उसके मन है, आत्मा है, शरीर है, दिमाग है, अपना भला-बुरा सोचने की तमीज़ है । जीवन का सगी जैसा व्यक्ति उसे स्वेच्छा से तलाश करने, पसन्द करने का भी हक नही, खास कर जवान लडकियो को, जो आर्यसमाज के प्रधान की पुत्रियां हों और पढी-लिखी हों, जिन्हे उनके पिता ने स्वय विवाह की आजादी दी हो, युवकों से मिलाया हो, और एक-दूसरे को पसन्द करने, प्रेमालाप करने, पत्र-व्यवहार करने के महीनों सुभीते दिए हों ?" युवक देशराज झोक मे एकबारगी ही उपर्युक्त व्याख्यान बखान गया। स्नातक महाशय ने जरा आंख-भौ चढ़ाकर कहा-मैं तो पहले ही से जानता था कि आपका बातें करने का ढंग तूफानी है । महाशय जी, पिता जिसे चाहता है, उसे ही कन्यादान करता है। यह विलायती कोर्टशिप नही, वैदिक विवाह है, -