पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/२३५

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२४० विधवाश्रम होगी, परसों इसी समय आना। पर देखना, रुपयो की बात किसीसे न कहना; समझी ?" "पर जब खर्च करूंगी, तब तो भेद खुलेगा ही?" "कह देना किसी सहेली ने दिया था, या पड़ा पा गई थी।" "खैर, आप बेफिक्र रहे मै सब ठीक कर लूगी।" अब डाक्टर जी दुलार से बालिका के गाल पर चुटकी लेकर बाहर चले आए। हसकर बुढिया से कहा-लड़की बड़ी सीधी है, दो-चार बार आने से समझ जाएगी। न होगा तो यहां कुछ दिन रख लिया जाएगा। बुढ़िया ने कहा-भगवान आपका भला करे । आपने बडा भारी धर्म का बीडा सिर पर उठाया है। इतना कह और धरती मे माथा टेक बुढ़िया रवाना हुई। - । डाक्टर साहब आश्रम के भीतरी कक्ष मे एक शतरजी पर बैठे थे । सामने एक नवयुवती सिकुड़ी हुई बैठी थी । डाक्टर साहब मन लगाकर उसे सन्मार्ग पर लाने की चेष्टा कर रहे थे। उन्होने कहा-देखो बेटी, मै तुम्हारा धर्म का पिता हूं और रक्षक हू । समझती हो न? "जी हा, आपने पत्र मे भी यही लिखा था इसीसे आपपर विश्वास करके चली आई हूं। बापकी धर्म की पुत्री हूं। आह, मैं बड़े दुष्टो के फन्दे मे पड़ गई थी। कहने को समाजी, पर परले दर्जे के लुच्चे, औरतो का व्यापार करनेवाले।" "अच्छा, तुम कहा जा फसी थी? खैर, जाने दो इन बातो को। तो देखो, जब मैं तुम्हारा रक्षक और धर्मपिता हुआ, तब तुम्हे मेरे कहने के अनुसार काम भी करना होगा। तुम जानती हो, मैं सदैव तुम्हारी भलाई की बात ही सोचूगा।" "मुझे आपका भरोसा है।" "अच्छी बात है, तुम्हेतीन दिन यहां आए हुए । कहो, कोई कष्ट तो नहीं है ?" "जी नहीं।" "खाने-पीने की दिक्कत?" “जी, कुछ नही।" "कपड़े-लत्ते तुम्हारे पास काफी हैं न ?" 64 “जी हा?" "खैर, मैं दो जोड़ा साड़ी तुम्हें आज ही और भिजवाए देता हूँ। तुम कैसी