पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/२५०

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विधवाश्रम २५५ मैजिस्ट्रेट के सामने पहुंचकर अक्टर साहब ने गम्भीर धर्म-भाव धारण कर लिया । 'धर्मपुत्री' जी बडी सीधी गऊँ बन गई । गजपति ने रोनी सूरत बना ली। तीनो स्त्रिया लज्जा से सिकुडी खडी थी। आखिर औरतो को उडाने, उन्हे बेचने और जबरदस्ती बन्द कर रखने का मुकदमा चला। मैजिस्ट्रेट ने बारी-बारी से तीनो स्त्रियो के बयान लिए। एक ने कहा-मेरा नाम रामकली है। मै हैदराबाद दक्खिन से आई हू । पर मेरा असली वतन कानपुर है। जात की ब्राह्मण हूं। मेरा पति हैदराबाद मे नौकर था, वह मर गया। तब एक पडौस के भले घर मे मै मिहनत-मजदूरी करके गुज़र करने लगी। उस घर के मालिक की मेरे ऊपर बुरी नजर पडी, उन्होने मुझे तग करना शुरू कर दिया । अन्त मे उन्होंने मेरा धर्म भ्रष्ट कर दिया। उन्होने बडे- बडे सब्ज़ बाग दिखलाए थे। पर थोडे ही दिनो में उनका बर्ताव बदल गया। उन्होने मुझे पढने की सलाह दी, मुझे वह पसन्द आ गई। उन्होने कहा कि हम तुझे दिल्ली आश्रम मे भेजे देते है, वहा बहुत अच्छा बन्दोबस्त है। मैने स्वीकार किया। वे मुझे मन्त्री आर्यसमाज के पास ले गए । उन्होने मुझे लिखा-पढी करके यहा पहुचा दिया। यहा इन लोगो के रग-ढंग देखकर मैं घबरा गई । मन्त्री जी ने कहा था कि वहां आर्यदेविया रहती है-विद्या पढाई जाती है, और सन्ध्या, हवन नित्यकर्म होते हैं। पर यहा देखा तो कुट्टनखाना है, गुण्डो का राज्य है । वे भले घर की बहन-बेटियो को फुसलाकर लाते है और दस-पाच दिन खिला-पिलाकर बेच देते हैं। मेरा भी सौदा होने लगा। दो-तीन आदमी भी बुलाए गए । रुपये भी वसूल कर लिए । पर मैं मर्दो की दुष्टता को जान चुकी हू । मै इनपर विश्वास नहीं करती, न उनकी दासी बनना चाहती हूं। फिर मेरी किस्मत मे जो होना था, हो गया। मै विद्या पढकर कही अध्यापिका की नौकरी करना चाहती थी, जिससे गुजर हो जाती । परन्तु ये लोग तो बेचने को पागल हो रहे थे । मुझे बहुत डराया- धमकाया, पर जब मैं राजी न हुई, तब बन्द कर दिया । मै सात दिन बन्द रहीं। दो बार मुझे पीटा भी गया। एक बार यह गजपति जबर्दस्ती करने को मेरी कोठरो मे घुस आया था, उससे बडी कठिनाई से जान बचाई । मैंने उसकी बाह मे काट खाया, उसका निशान अवश्य होगा। यह अधिष्ठात्री देवी कहाती है, पर पूरी चुडैल है । ये उसका जुल्म आंखो देखती और खिलखिलाकर हसती थी। नित्य ही यहा ऐसा होता है। उस दिन से मुझे खाना भी नही दिया गया था और मार