पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/७३

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७४ भिक्षुराज अति प्रफुल्लित हो अपने कर्तव्य का पालन कर रहे थे। भिक्षुराज ध्यानावस्थित बैठे कुछ विचार कर रहे थे। आर्या संघमित्रा बोधि- वृक्ष को सीच रही थी। एक भिक्षु ने बद्धाजलि होकर कहा-स्वामिन्, सिघल द्वीप के स्वामी महाराज तिष्य ने आपको राजधानी अनुराधपुर ले जाने के लिए राजकीय रथ और वाहन तथा कुछ भेट भी भेजी है, स्वामी की क्या आज्ञा है ? युवक भिक्षुराज ने बाहर आकर देखा, सौ हाथी, सौ रथ और दो सहस्र पदातिक एव बहुत-से भिन्न-भिन्न यान है। साथ मे राजकीय छत्र-चवर भी है। महानायक ने सम्मुख आ, नतजानु हो, प्रणाम कर कहा-प्रभु, प्रसन्न हो । महा- राजा की विनय है कि पवित्र स्वामी अनुचरो-सहित राजभवन को सुशोभित करे। वाहन सेवा में उपस्थित है। कुछ तुच्छ भेट भी है। यह कहकर महानायक ने सकेत किया-तत्काल सौ दास विविध सामग्री से भरे स्वर्ण-थाल ले, सम्मुख रखकर पीछे हट गए। उनमे बड़े-बड़े मोतियो की मालाए, रत्नाभरण, बहुमूल्य रेशमी वस्त्र, सुन्दर शिल्प की वस्तुए, बहुमूल्य मदिराए और विविध सामग्री थी। महाकुमार ने देखा, एक क्षीण हास्य-रेखा उनके होठो मे आई, और उन्होने महानायक की ओर देखकर गम्भीर वाणी में कहा--महानायक, भिक्षुओ के भिक्षा-पात्र मे कहां यह राजसामग्री समाएगी, मेरे जैसे भिक्षुओ को इसकी आवश्यकता ही क्या? इन्हें लौटा ले जाओ। महा- राज तिष्य से कहना, हम स्वय राजधानी मे आते है। भिक्षुराज ने यह कहा, और उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना ही अपने आसन पर आ बैठे। राज्यवर्ग अपनी तमाम सामग्री-सहित वापस लौट गया। राजधानी वहा से दूर थी, और यात्रा की कोई भी सुविधा न थी, परन्तु उम टापू के राजा तिष्य को सद्धर्म का सदेश सुनाना परमावश्यक था। यदि ऐसा हो जाए, तो टापू-भर मे बौद्ध-सिद्धान्तो की व्याप्ति हो जाए। महाकुमार ने तैयारी की । कुमार और बारहो साथी तैयार हो गए। और, वह दुर्गम यात्रा प्रारम्भ की गई। प्रत्येक के कन्धे पर उनकी आवश्यक सामग्री और हाथ मे भिक्षा-पात्र था। वे चलते ही चले गए। पर्वतो की चोटियो पर चढ़े। घने, हिंस्र जतुओ से परिपूर्ण बन मे घुसे। वृक्ष और जल से रहित रेगिस्तान में होकर गुजरे। अनेक भयंकर गार और ऊबड़-खाबड़ जगल, पेचीली जगली