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कहानीकार का वक्तव्य
 
 

पचास हजार की संख्या में छपी। बहुत सुधारकों ने उसे छापकर मुफ्त बांटा। इससे मेरा उत्साह बढा और मैंने पहली कहानी 'सच्चा गहना' लिखी, जो प्रयाग की गृहलक्ष्मी में छपी। इसके बाद सामाजिक कुरीतियों पर मैं बराबर लिखता रहा। कविता मेरी छूट गई और गद्य मेरा सतेज हो गया। राजपूत-जीवन से मैं अधिक प्रभावित रहा, इससे मैं जब-तब राजपूत-जीवन और कुरीति-निवारणमूलक छोटे-छोटे गद्य-काव्य और कहानियां लिखने लगा। सन् १२ के बाद 'प्रताप', कानपुर; 'कर्मवीर', खडवा;'प्रभा', कानपुर; 'शारदा', नागपुर, 'सुधा', 'माधुरी', लखनऊ मे तथा इलाहाबाद के 'चांद' में तेजी से लिखना शुरू किया; और अब अपनी रचनाओं को इन पत्रो में छपी देखने को मैं बेचैन रहने लगा। 'प्रताप' खास तौर पर मेरे वीररस भरे गद्य-काव्यों को छापता था। 'चांद' कुरीति-निवारणमूलक कहानिया और लेख छापना पसन्द करता था। इस समय तक मुझे न तो अपनी रचनाओ का कुछ साहित्यिक मूल्य ही ज्ञात था, न मैं कला के सम्बन्ध में कुछ समझता था। लिखने की परिपाटी भी मेरी आप ही विकसित होती जा रही थी। यह तो मुझे बहुत बाद में पता चला कि उस काल की लिखी गई कुछ चीजें साहित्यिक दृष्टि से काफी क्जनी मानी गई।

मैं नहीं जानता कि दूसरे लोग कहानियां लिखने की प्रेरणा कहा से पाते थे, परन्तु मैं तो कहानी की टोह में आसपास चारों ओर जासूसी नज़र से देखने लगा। बहुधा मित्रों और परिचितो के चरित्रो पर ध्यान करता। प्लाटों की टोह में चौपाटी के चक्कर लगाता, परन्तु यह बात मेरे ध्यान में भी न आई कि मुझे अन्य लेखको की कहानियां पढ़कर कुछ प्रेरणा लेनी चाहिए। जब-तब कोई कहानी मिली तो पढ़ ज़रूर लेता था, पर उसपर मैंने ध्यान कभी नही दिया। मेरी आसक्ति इतिहास की ओर जरूर थी। मै बचपन ही से प्राचीन गौरवमय चरित्रों को चाव से पढता रहा हूं। अतः मैं तुरन्त ही राजपूत-चरित्र पर कलम चलाने लगा और गम्भीर होने पर बौद्ध युग तक जा पहुंचा।

राजपूत-चरित्र पर मेरी कहानियों मे मेरा तरुण रक्त है। पहले जब मैं अपने को जन्मतः क्षत्रिय समझता था, तब ऐसा प्रतीत होता था जैसे मै अपनी ही गुण-गरिमा गा रहा हूं। वास्तव में राजपूत-जीवन पर जो मेरा मन केन्द्रित हुआ, वह केवल इसलिए नही कि राजपूत पीड़ित और व्यथित थे, अपितु मेरा मन राजपूत-जीवन के प्रति कुछ ममता से भर गया था। ऐसा कुछ लगता था कि