14 बा और बापू और प्रात काल जब बापू ने बच्चो से अपनी इच्छा प्रकट को तो वे तुरन्त राजी हो गए। उहोंने 'वा' को राजी करने का भार भी अपने सिर लिया। किन्तु जब 'वा' के सामने बात आई तो 'वा' बिखर गई, उन्होंने यहा, "तुम्हें और तुम्हारे लडको को चाहे इन गहनो की जरूरत न हो। बालको का क्या जैसा समझाओगे समझ जाएगे । मुझे भी मत पहनने दो, पर मेरी बहुओ का क्या होगा ये उनके काम आएगे। कौन जाने कल क्या होगा, फिर में इतने प्रेम से दी हुई वस्तुओ को लौटाक कैसे? वाग्धारा के साथ 'बा' की अश्रुधारा भी बह चली। बापू ने धीरे से कहा, "लडको की शादी अभी होने की नहीं, हमे इहे बचपन में व्याहना ही नहीं है, बडे होने पर ये जो ठीक समझेंगे वही करेंगे और हमे गहनो की शौकीन बहुए नहीं ढूढनी हैं । फिर भी यदि कुछ वनवाना ही हुआ तो मैं हू ही।" "तुम्हे मैं जानती हू, तुम वही हो न, जिसने मेरे अपने गहने भी छीन लिए । जब तुमने मुझी को सुख से नही पहनने दिया तो मेरी बहुओ के लिए क्या लाओगे ? ये गहने नहीं लौटेंगे, फिर, मेरे हार पर तुम्हारा हक क्या है ?" बापू ने तनिक दृढ आवाज में कहा, "लेकिन यह हार तुम्हें तुम्हारी सेवा के लिए मिला है या मुझे?" "कुछ भी हो, तुम्हारी सेवा मेरी भी हुई। मुझसे रात दिन मजूरी कराई, सो क्या सेवा नही मानी जाए? मुझे रुला-रुलाकर हर किसी को घर मे रखा और उसकी भी खिदमत करवाई, इसका कुछ हिसाव ही नहीं है?" वाद-विवाद बहुत हुआ। परतु 'बा' को गहने लौटाने पडे । वे ट्रस्टियो की इच्छानुसार सावजनिक कामो मे उपयोग करने के लिए उहें दे दिए गए।
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