पृष्ठ:बा और बापू.djvu/२३

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22 बा और वापू उन्होने और महिलाओ को तो सत्याग्रह में सम्मिलित होने की प्रेरणा दी पर 'बा' से कुछ न कहा। परन्तु 'बा' ने भी पति का मतलब भाप लिया। एक दिन उन्होंने यो बातचीत की "तुम मुझसे इस बात की चर्चा क्यो नही करते? मुझमे ऐसी क्या कमी है कि मैं जेल नही जा सकती? मुझे भी उसी रास्ते जाना है जिस रास्ते जाने की सलाह तुम और बहिनों को देते हो।" बापू ने कहा, "मैं तुम्हें दुख पहुचा नही सकता । तुम्हारे जेल जाने से मुझे सुख मिलेगा, परन्तु मैं यह पसद नही करता कि तुम मेरे कहने से जेल जाओ। ऐसे काम तो सबको अपनी अपनी हिम्मत पर करने चाहिए। तुम सह सको तो जाओ।" "मेरे बच्चे सह सकते हैं, तुम सह सक्ते हो, फिर मैं क्यो नही, सह सक्ती? ऐसा तुमने कैसे मान लिया? मुझे तो इस लडाई मे सम्मिलित होना है।" "तो मैं तुम्हे लेने को तैयार हू, पर मेरी शर्त तो तुम जानती ही हो, भीतर से तुम्हारा मन पक्का हो तो जाना, अब भी सोच लो।" "मुझे सोचना कुछ नही। मेरा निश्चय दृढ है।' इस प्रकार 'बा' दूसरी महिलाओ के साथ बालस्ट जेल में दाखिल हुई । जिस दिन वे जेल मे गईं, उसके दूसरे ही दिन एक मजेदार घटना घटी। वहा का जेलर गुजराती या हिदुतानी नहीं जानता था । परतु उसे उनके नाम, पते और पहचान लिखनी थी। जेलर ने श्री छगनलाल गाधी को दुभाषिये का काम करने को आफिस बुलाया और कारकुन से कहा कि वह प्रश्न करे और उत्तर लिखे। कारकुन-{'वा' को दिखाकर अग्रेजी में) "यह जो खही हैं,