पृष्ठ:बा और बापू.djvu/४०

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हरिलाल भाई 39
 


जाते रहते थे। परन्तु अन्त मे जब उनकी हालत बहुत खराब हो गई तो उन्हे आश्रम मे आने में हिचक होने लगी। एक बार बहुत ही बुरी, बेहाल हालत में उनका 'बा' और बापू का अकस्मात् साक्षात हो गया।

बापू और 'बा' ट्रेन की यात्रा कर रहे थे। जब जबलपुर मेल कटनी स्टेशन पर पहुची तो वहा दूसरे स्टेशनो से बिल्कुल निराला नया जयनाद सुनाई दिया, 'माता कस्तूरबा की जय।' इससे 'बा' को थोड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने खिड़की से मुह निकालकर बाहर देखा, तो सामने हरिलाल भाई खडे थे।

उनका स्वस्थ शरीर बिल्कुल जर्जर हो गया था, अगले दात सब गिर गए थे, कपड़े बिल्कुल फटे हुए थे। खिड़की के पास आकर उन्होने अपनी जेब से झटपट एक मोसम्मी निकाली और कहा, "'बा' यह तुम्हारे लिए लाया हू।"

'बा' के होठ अभी हिल ही रहे थे कि बापू खिड़की के पास आ पहुंचे और बोले, "मेरे लिए कुछ नही लाया?"

हरिलाल भाई ने कहा, "नही, यह तो 'बा' के लिए ही लाया हू। आपसे तो केवल यही कहना है कि 'बा' के प्रताप से ही आप इतने बड़े बने हैं।"

"इसमे तो कोई सन्देह नही, परन्तु क्या तू अब हमारे साथ चलेगा?"

"नही, मैं तो 'बा' से मिलने आया हू।"

बापू वापस अपनी जगह पर आ बैठे। मां-बेटे की बात फिर आगे चली।

"लो 'बा' यह मोसम्मी।"

"कहा से लाया?"

"कही से भी लाया हू, तुम्हारे लिए लाया हू। भीख भागकर लाया हू।"