पृष्ठ:बा और बापू.djvu/४३

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42 बा और बापू इसलिए जिसे डाट-फटकार देना होता, दे डालती। वे सब कुछ ठीक-ठोक देखना चाहती थी, तनिक भी कोई वस्तु बेकरीने देखती तो स्वय हाथ से ठीक-ठाक कर देती थी। बापू का भोजन वै स्वय बनाती या अपनी कडी निगरानी में बनवाती। उनके लिए बनाई खस्ता रोटिया गोल डब्बे मे ठीक तौर पर जमाकर रवखी जाती हैं या नहीं, सभी एक आकार की हैं या नही, कोई मोटी-पतली तो नही है-इसकी 'वा' खूब छानबीन करती थी। उनमे नमक-सोडा ठीक डाला गया है, यह भी 'बा' ठीक तौर पर जाच लेती थी। जिस दिन ये खस्ता रोटिया 'खाखरे' 'बा' अपने हाथ से बनाती तो बापू को पता चल जाता। व हसकर कहते, "आज तो 'बा' वे बनाए खाखरे हैं।" भोजन वी घण्टी बजते ही सब भोजनालय मे जा पहुचते, तव बापू और खास मेहमानो को परोसकर 'बा' बापू के पास खाने बैठ जाती। उस वक्त भी एक निगाह उनकी बापू की ओर रहती। बापू के पास एक मक्खी भी आती देखती तो उनका बाया हाथ पखे पर जाता। भोजन के बाद 'बा' बापू के साथ भोजनालय से उनके कमरे मे आती और जब बापू अखबार पढने लगते तो वे उनके तलवो पर घी की मालिश करती । जब बापू की आख लग जाती तो 'बा' उठयर अपने कमरे मे जाती और तनिक विश्राम करती, परतु पन्द्रह-बीस मिनट बाद ही उठकर मुह धोकर स्वय अखबार पढने बैठ जाती। 'वदे मातरम' और 'गुजरात समा- चार' तो बिना नागा पढा करती। 'हरिजन-भयु' प्रति सप्ताह उनके पास माता । गीता के श्लोकों का शुद्ध पाठ करने की चेष्टा वे सदा करती थी। अखबार से फुसत पावर 'बा' प्रतिदिन कातने बैठती, प्रतिदिन 400 से 500 तार बरावर कातती। कताई उनकी तभी रुक्ती, जब वे रोगशय्या पर होती आश्रम भर में 'बा' सबसे अधिक सूत कातनेवालो मे थी। चार बजते-बजते 'वा'