पृष्ठ:बा और बापू.djvu/४६

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नौ अगस्त 45 रहे थे। 'बा' का दरबार लगा था, वे बीमार थी और थककर घूर-चूर हो गई थी, परन्तु अपने हिस्से के कर्तव्य-पालन में जुटी थी। पौने पाच बजे शाम को वे सभा के लिए चली। द्वार पर एक बडे डोलडौल बाला पुलिस अफसर मिला। वह हाथ जोडे हुए 'बा' के सामने आया और अदव से झुककर 'बा' से कहा, "आप घर ही रहेंगी या सभा मे जाएगी? आपका क्या हुक्म है ?" 'बा' ने मीठी मुस्कान के साथ उत्तर दिया, "मैं सभा मे ही तो जा रही है।" अफसर क्षण-भर रुका। फिर बोला, "तो फिर आप इस मोटर मे बैठ जाए, मैं आपको बापू के पास ले जाऊगा।" 'वा' ने तुरन्त तैयारी कर ली। सुशीला बहिन के विना 'बा' का काम नहीं चल सकता था, अत यह कह दिया कि 'वा' के बाद सुशीला भाषण करेंगी। बस, सुशीला का साथ बन गया। 'बा' की यह अन्तिम यात्रा थी। मोटर जब दोनो को लेकर आर्थर रोड जेल पर पहुची तो 'वा' ने खिन स्वर से कहा, "इस वार ये ज़िन्दा नही निकलने देंगे । बहिन यह सरकार तो पापी है।" सुशीला ने कहा, "हा 'वा', पापी तो है ही। इसीलिए इसका पाप ही इसे खा जाएगा और बापू फतह पाकर वाहर निकलेंगे।" जेल में उन्हे लकडी के ही पटरे सोने के लिए मिले। 'वा' को थोडा ज्वर था और उन्हे रात-भर दस्त आते रहे थे। प्रात काल जब डाक्टर आया तो सुशीला वहिन ने कहा, "'वा' के लिए खास खुराक मिलनी चाहिए।" "तो वह आप खरीद सकती हैं।" "पर तु हमारे पास पैसे नहीं हैं आप हमारे मित्रो को फोन करदें जिससे वे स्पये भेज दें।"