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[ थाती
 


शुई। किन्तु मेरी ग्रह : सा.कभी - पूरी न हुई। बै जाते-जाते एक-दो बातें चोल दिया:करते, जिसके उत्तर में मैं केवल हँस दिया करती थी, लेकिन लोग ग्रह .भी ने सह सके और तिल का ताई वन ग्या।

अंच मुझ पर घरं में अनेक प्रकार के अत्याचार होने लगे। हर दो-चार दिन बाद मुझ पर मार भी पड़ती; परन्तु मैं कर ही क्या सकती थी ? मैं तो उनसे बोलती भी है थी और उनका बोलना वन्द करना मेरी शक्ति से परे था। उन्होंने मुझसे कभी भी कोई ऐसी बात नहीं कहीं जो अनुचित कही जा सके। उन्हें तो शायद विधाता ने ही रोते हुओं को हँसा देने की कला सिखाई थी। वे ऐसी मी चुटकी लेते । कभी कोई हँसी की बात भी कहते तो इतनी सभ्यता से इतनी नपी-तुला कि मैं चाहे जितनी दुखी हो, चाहूं. जितने रंज में होऊँ पर हँसी आ ही जाती थी ।

किन्तु धीरे-धीरे मुंह पर होने वाले अत्याचारों को पता उन्हें लग ही गया। उनके दयालु हृदय को इससे गहरी घोंट पहुँची । उस दिन, अन्तिम दिन जब में पानी भरने गई। वे कुए पर आए और मुझसे बोले, "मैं तुमसे कुछ कंछना चाहता हूँ।

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