पृष्ठ:बिखरे मोती.pdf/६४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

बिखरे मोती ]

[ ६ ]

जब मैं पिता जी के घर पहुँची, शाम हो चुकी थी । इस बीच माता जी का देहान्त हो चुका था। भाई भी तीनों, कालेज में थे। घर पर मुझे केवल पिता जी मिले; उन्होंने मुझे अन्दर न जाने दिया; बाहर दालान में ही बैठाला। चिट्ठी पढ़ने के बाद वे तड़प उठे, बोले-जब यह भ्रष्ट हो चुकी है तो इसे यहाँ क्यों लाए ? रास्ते में कोई खाई, खन्दक न मिला, जहाँ ढकेल देते ? इसे मैं अपने घर रक्खूँँगा ? जाय, कहीं भी मरे । मुझे क्या करना है ? मैं पिता जी के पैरों पर लोट गई; रोती-रोतो बोली--पिता, जी, मैं निर्दोष हूँ। पिता जी दो कदम पीछे हट गये । और कड़क कर बोले, “दूर रह चांडालिन; निर्दोष ही तू होती तो इतना यह बवंडर ही क्यों उठता ? उन्हें क्या पागल कुत्ते ने काटा था जो बैठे-बैठाए अपनी बदनामी करवाते ? जा, जहाँ जगह मिले, समा जा । मेरे घर में तेरे लिए जगह नहीं है। क्या करू, अंगरेजी राज्य न होता तो बोटी-बोटी काट के फेंक देता ।"

इस होहल्ला में समाज के कई ऊँची नाक वाले अगुआ और कई पास-पड़ोस वाले भी जमा हो गये । सबने

४७